Tuesday 29 December 2009

क्या तीन इडियट काफी हैं ?



अगर हमारे आस-पास कुछ गलत हो रहा है तो हम क्या कर सकते हैं? आन्दोलन कर सकते हैं? बंदूक उठा सकते हैं? या शायद खुद को आग लगा कर अपना गुस्सा प्रकट कर सकते हैं। हमारे देश में अब तक जिस इन्सान ने गलत का सबसे संगठित विरोध किया, उसमे सबसे ऊपर महात्मा गाँधी का नाम आता है। जरुरी नहीं है कि बदलाव लाने के लिए हथियार ही उठाया जाय मोहन दास करम चन्द गाँधी को ये बात तब समझ आई, जब ट्रेन में चलते हुए उन्होंने एक किताब पढ़ी अन टू दी लास्ट

कार्ल मार्क्स ने उन्नीसवी शताब्दी में एक किताब लिखी दास कैपिटलवो किताब आज तक पूरी दुनिया में पूंजीवादी व्यवस्था की लिए सिरदर्द बनी हुई है उस किताब ने जाने कितनी क्रांतियों को जन्म दिया आखिरइन किताबों में था क्या? सिर्फ एक विचार यानि(आईडिया)

अगर दार्शनिक ढंग से देखा जाए तो इन्सान के जीवन का परम उद्देश्य सुख और शांति की प्राप्ति है इन्सान जो कुछ भी करता है उसका निहित यही होता है जब पहली बार सायकिल का अविष्कार हुआ होगा तो लोग कितने खुश हुए होंगे? सायकिल एक यांत्रिक अविष्कार था , लेकिन उसकी उत्पत्ति भी एक विचार यानि आइडिया से ही हुई होगीयानि इन्सान के जीवन में सबसे महत्वपूर्ण है विचार (आईडिया)

कहते हैं पश्चिम का समाज इसलिए इतना आगे बढ़ गया क्यूंकि उनके यहाँ हर किसी के विचार को सम्मान और महत्व दिया जाता है हमारी वयस्था में अगर एक स्टूडेंट किसी टीचर को ये बताए की पदाया कैसे जाता है तो उसे घसीट के क्लास में ले जाया जाता है और कहा जाता है कि पढ़ा कर दिखाए की कैसे वो हमारे काबिल टीचर्स से बेहतर पढ़ा सकता है फिल्म थ्री इडियट में प्रोफेसरवीर सहस्त्रबुध्धि (बोमन ईरानी ) रणछोड़ दास चांचर (आमिर खान) के साथ यही करते हैं


हमारी व्यवस्था में लाखों ऐसे युवा हर साल पैदा होते हैं जो किसी भी दौड़ या एग्जाम में फर्स्ट आने की काबिलियत रखते हैं। किसी को इस बात से कोई मतलब नहीं कि उनमे से कोई एक भी कुछ नया कर सकता है या नहीं। माँ-बाप अपने बच्चों को फर्स्ट लाना चाहते है क्यूंकि इससे पास-पड़ोस में उनकी इज्जत बढती है। या फिर उनकी गरीबी का हल इसमें ही है , क्यूंकि फर्स्ट कर ही उनका बच्चा भी बड़ी नौकरी , बड़ी गाड़ी और बड़ा घर खरीद सकता है। स्कूल या कोलेजेस अपने स्टुडेंट्स को ज्यादा से ज्यादा नम्बर्स लाने के लिए प्रेरित करते हैं क्यूंकि इससे उनके संस्थान की रेटिंग में सुधार होता है।

फिल्म में फरमान कुरैशी (माधवन) के अब्बा अपने बेटे के इंजीनियरिंग छोड़ फोटोग्राफर बनने के फैसले से इसलिए घबरा जाते हैं कि आखिर उनके पडोसी कपूर साहब क्या सोचेंगे। राजू (शरमन जोशी) के माँ-बाबा उसेइंजिनियर बनाना चाहते हैं जिससे कि वो बेटी कि शादी में मारुती कार दहेज़ में दे सकें और पिता का इलाज किसीबड़े अस्पताल में हो सके। लेकिन रणछोड़ दास चांचर (आमिर खान) इंजीनयर बनाना चाहता है क्यूंकिइंजीनियरिंग उसका पैशन है। उसके ऊपर न तो माँ-बाप का दबाव है न तो समाज का डर। इसीलिए तो वो पूरेसिस्टम को चुनौती दे देता है। क्या हम ऐसे समाज में रह रहे हैं जहाँ हमें व्यवस्था को बदलने के लिया ज्यादा सेज्यादा अनाथों कि जरुरत है?

आज भी हम जिस व्यवस्था में रहते हैं उसमे सबसे ज्यादा पावर, पैसा और लोकप्रियता किनके पास है? नेताओं, अभिनेताओं और खिलाडियों के पास। आखिर कितने माँ-बाप अपने बच्चों को इनमे से किसी भी एक फील्ड में भेजना चाहते हैं। शायद कोई नहीं। क्यूंकि हमारे युवा या तो राजू की तरह डरे हुए हैं या फरहान की तरह समाज के दबाव में जी रहे हैं या फिर जॉय लोगो (शांतनु मोइत्रा) की तरह किसी प्रोफेसर के गुस्से का निशाना बनकर आत्म हत्या कर लेते हैं।
हमारे यहाँ हर साल जाने कितने स्टुडेंट्स खुद मौत को गले लगा लेते हैं, या फिर घोर अवसाद या निराशा के चंगुल में फँस कर अपने सपनो का गला घोट देते हैं। जिंदगी और फिल्म में यही तो अंतर होता है कि फिल्म में तो फरहान और राजू को चांचर जैसे लोग मिल जाते हैं। लेकिन असल जिन्दगी में हम चतुर रामलिंगम जैसे लोगो से घिरे हुए होते हैं जो रट-घोट के इग्जाम में पास होते हैं और बड़ी गाड़ी, बड़े बंगले को ही जिंदगी का अंतिम सच मानते हैं।

बिहार और उत्तर प्रदेश से हर साल न जाने कितने युवा दिल्ली या ऐसे ही बड़े शहरों में डाक्टर ,इंजिनियर और आईए एस बनने के सपने लिए आते हैं। अपने किसान माँ-बाप का लाखों रूपया कोचिंग संस्थानों में देते हैं। इनमे सेज्यादातर असफल होते हैं और फिर जिंदगी भर कुंठा में जीते हैं। जो सफल होते हैं उनमे से ज्यादातर चतुररामालिंगम जैसे होते हैं, जो दुनिया की किसी भी किताब को रट सकते हैं। उनका सपना बड़ी गाड़ी, बड़ा बंगला औररुतबा हासिल करना होता है। ऐसे ही लोगो के योगदान की वजह से हम भ्रष्ट देशों की सूचि में काफी ऊपर हैं। इनसब के लिए दोषी कौन है? हमारे माँ-बाप, अध्यापक,समाज या फिर हमारा सिस्टम? या फिर शायद सभी ...

सिस्टम कितना भी भ्रष्ट हो जाए वो बदलाव की बयार को रोक नहीं सकता। हर सिस्टम में नए आईडिया देने वाले पैदा हो ही जाते हैं। फिल्म में ये काम रणछोड़ दास चांचर करता है और असल जिंदगी में राज कुमार हिरानी जैसे लोग सिर्फ एक विचार दुनिया को बदल सकता है। अब देखना ये है कि ये बदलाव कितने मासूमों और युवाओं की जिंदगी की क़ुरबानी के बाद होता है।
संजीव श्रीवास्तव

Wednesday 23 December 2009

पुस्तक समीक्षा



पुस्तक : नेमसेक

लेखिका : झुम्पा लाहिड़ी

पृष्ट : २९१

मूल्य: ३९५ रूपए

सफलता के उच्चतम शिखर पर पहुच कर अपने नाम का झंडा गाड़ने के लिए कुछ लोग किसी भी बंधन की परवाह नहीं करते। परिवार हो ,समाज हो या राष्ट्र इन सब के बंधन को तोड़ते हुए वो दौड़ते ही जाते हैं। अंत में जब शिखर पर पहुचते हैं, तो उनके पास तो कोई उनकी खुशियों को बांटने वाला होता है और ही कोई उनके अकेलेपन को साझा करने वाला। नेमसेक ऐसे ही सपनो की दुनिया में खोये एक परिवार के दो पीढ़ियों की कहानी है।

एक नवजवान मेधावी बंगाली युवा(अशोक गांगुली) अपने सपनों की दुनिया बसाने अमरीका जाता हैं। साथ वो अपनी पतनी (आशिमा) को भी उस अनजान दुनिया में ले आता है। भारतीय संसकारों में पली-बढ़ी वो नारी एकाएक अपनेआप को पश्चिम की अनजान दुनिया में अकेली पाती है। लेकिन संस्कारों की खुराक उसे अनजान दुनिया में ही अपना शहर बसाने की ताकत देती है।

सपने तो पूरे होते हैं, लेकिन उसके बदले में जड़ो से टूटने का दुःख समय बीतने के साथ बढ़ता ही जाता है। अमरीका के विकसित और व्यवस्थित अस्पताल में उनके शिशु का जन्म होता है। जिसके जन्म पर यहाँ सोहर के गीत गाए जाते,वहां उनके आसपास कोई एक भी ऐसा नहीं होता, जिसके साथ वो अपनी इस खुसी को बाँट सकें।

संस्कारों की सीख किताबों से नहीं, बल्कि उस समाज से मिलती है, जहाँ हम-आप रहते हैं। अशोक और आशिमा भले ही विदेश में रहने लगे ,लेकिन उनके संस्कारों की जड़ें अभी भी हजारों मील दूर भारत में गड़ी हुइ थी। लेकिन विदेश में जन्मे उनके बच्चों के लिए यही संस्कार कभी पहेली तो कभी बोझ बन जाते हैं

सपनो की दुनिया बसाते-बसाते इंसान कई बार इतना आगे निकल जाता है की वो चाह कर भी वापस नहीं सकता। जब अपने बच्चे ही अजनबी लगने लगें, और उनके संस्कार माँ-बाप के लिए ही अजनबी बन जाएँ तो ऐसे में क्या रास्ता बचा रह जाता है? यही और ऐसे ही सवालों की गुत्थी का पिटारा है नेमसेक

भाषा सिर्फ उपन्यासकार का ही नहीं , बल्कि उपन्यास की विषयवस्तु का भी प्रतिनिधित्व करती है। कई बार पृष्ठभूमि का अतिशय वर्णन विषय को सिर्फ बोझिल बना देता है, बल्कि उब भी पैदा करता है। ऐसे कई मौके उपन्यासकार के पास थे जहाँ यदि वो चाहता तो प्रसंग को उत्तेजना बढ़ाने वाला बना सकता था , लेकिन ऐसा कर के लेखक ने अपने संस्कारों का भी परिचय दे दिया है, जो काबिले तारीफ है।

एक ही चीज है जो दुनिया में सबको बराबर मिलती है, और वो है समय, अगर वो एक बार निकल गया, तो फिर वापस नहीं आता। संबंधों में इस तत्व की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण हो सकती है, ये समझाने की इस उपन्यास में एक दिल छू लेने वाली कोशिश की गई है। रिश्तों की समझ और उनकी नियति भी मिटटी के रंग के साथ बदल जाती है,ये जान कर आश्चर्य होता है।


संजीव श्रीवास्तव

Thursday 10 December 2009

सबसे पुराना अवैध धंधा



बुधवार को सुप्रीम कोर्ट ने एक जाहित याचिका की सुनवाई करते हुए सरकार से ये सवाल किया कि अगर कानूनन वेश्यावृति पर रोक नही लगाई जा सकती तो क्यूँ न इसे वैध कर दिया जाए । कोर्ट का मत था कि यही एक रास्ता है जिसके सहारे मानव तस्करी (महिलओं की तस्करी) पर रोक लगाई जा सकती है।

सरकार द्वारा कराये गए अद्ययन के निष्कर्ष को पेश करते हुए डॉक्टर के. के. मुखर्जी ने २००३-०४ में कहा था कि जहाँ १९९७ में भारत में सेक्स वर्कर्स कि संख्या बीस लाख थी वही एक दशक से भी कम समय में इनकी संख्या बढ़कर तीस लाख हो गई है। रिपोर्ट में ये भी कहा गया कि ३५% से भी ज्यादा वेशयाएं १८ वर्ष से कम क़ी आयु में ही इस व्यापार में धकेल दी जाती हैं।

रिपोर्ट में इस बात क़ी ओर भी इशारा किया गया कि अभी भी महिअलाओं के इस पेशे में आने का सबसे बड़ा कारण गरीबी , अशिक्षा , अग्यानता ही है। फिर भी भुमंदालिकरण ,विस्थापन ,सेवा छेत्र के विस्तार और सेक्स के प्रति लोगो के विचारों में आए बदलावों ने इस पेशे के बढ़ने में मदद की है।

यद्यपि वेश्यावृति के पेशे में अधिकांश महिलाएं निम्न वर्गों से ही होती हैं , लेकिन एक नया परिवर्तन देखने में आया है कि इस पेशे में ४०% महिलाऐं उच्च जातियों से संबन्धित हैं। साथ ही पेशे ने धर्मं कि सीमाओं को लांघ दिया है। बदलते समय के साथ इनकी पहुँच रेड एलर्ट एरिया से होते हुए होटल्स और अब साइबर कैफे तक हो चुकी है।

डा. के.के. मुखर्जी के अनुसार रेड एलर्ट एरिया में काम करने वाली औरतों को छोड़कर अधिकांश वेश्याएं नही चाहती कि उनके इस धंधे को वैधानिक किया जाए, क्यूंकि वो इस पर परदा डाले रहना चाहती हैं।

इसमे कोई दो राय नही कि बहुत सी मजबूर और धोखा खाई महिलाओं के लिए वेश्यावृति ही उनके जीवन यापन का एक मात्र सहारा है ,लेकिन ये पेशा हमारे समाज में सम्मान क़ी दृष्टि से नही देखा जाता। इन औरतों के लिए समाज की मुख्य धारा में लौटना लगभग असंभव होता है। वेश्यावृति कोई मौलिक समस्या नही है बल्कि ये मानव की कमजोरियों और व्यवस्थागत कमियों की ही व्युतपत्ति है। जब तक ये तत्त्व बने रहेंगे वेश्यावृति का उन्मूलन सम्भव नही है।

वेश्यावृति विरोधी कानून का सहारा लेकर पुलिस द्वारा सबसे ज्यादा इन वेश्याओ को ही परेशान किया जाता है।
इनके बच्चे क्या सिर्फ़ उनकी जिमेदारी हैं ? कल को अगर वो बच्चे किसी ग़लत राह पर जाएँ तो क्या हम सिर्फ़ वेश्यावृति को दोष देकर पल्ला झाड़ लेंगे?

वेश्यावृति को भले ही समाज हीन दृष्टि से देखता हो , लेकिन वेश्या कुछ भी होने से पहले एक इंसान है जिसे हमारी व्यवस्था ने ही जन्म दिया है। इसलिए ये हमारे व्यवस्था का ही दायित्व है की उन्हें और प्रताड़ित होने से बचाए।

संजीव श्रीवास्तव

Monday 23 November 2009

अपना घर

आज जब मै एक हफ्ते की छुट्टी के बाद दिल्ली आया तो अजीब सा लगा । पता नही क्यूँ , अबकी बार घर से आने का मन नही हो रहा था। घर एक ऐसी जगह जहाँ आप सिर्फ़ वो होते हैं जो आप हैं। वहां कुछ भी साबित करना नही होता। वहां सिर्फ़ एक चीज होती है, प्यार.... अपनापन... । व्यक्ति को इससे ज्यादा और क्या चाहिए। हम अपने जीवन में जो कुछ भी करते है उसका अन्तिम उद्देश्य यही प्यार और अपनापन पाना ही तो होता है ।

हम जीवन में सफल होना चाहते हैं , क्यूँ? क्यूंकि हमारी सफलता से हम अपने अपनों को खुश करना चाहते हैं। अक्सर सोचता हूँ , आख़िर क्यूँ इस कदर भाग रहा हूँ? क्या होगा उस सफलता का जो अपनों को खो कर मिले? ऐसी सफलता जो आपको अपनों से ही दूर कर दे, आपको वो करने के लिए मजबूर करे जो आप करना नही चाहते, आपको वहाँ रहने के लिए बेबस करे जहा आप ठहरना नही चाहते । ऐसे लोगो के बीच रहना पड़े जिन्हें आप पसंद नही करते , जो आपको पसंद नही करते।

जीवन का आनंद जिनके बीच है , उन्हें छोड़कर क्या सिर्फ़ पैसे और सफलता के लिए जीवन को कष्टमय बना देना ही संघर्ष है ? पिछले एक हफ्ते में मैंने महसूस किया कि जीवन कम पैसो से तो चल सकता है, लेकिन प्यार और अपनों की कमी जीवन को नीरस बना देती है ।

आज ना जाने क्यूँ ये लगता है कि जीवन जीने के लिए और किसी भी चीज से ज्यादा जरुरत अपनों के साथ की है। वो अपने जो आपको पसंद करते हैं। इसलिए नही कि आप ज्यादा पैसे कमा सकते हैं, बल्कि इसलिए कि आप उनके लिए कीमती हैं । आप उन्हें चाहते हैं । वो आपको चाहते हैं । यही चाहत जीवन कि उर्जा है ।

घर क़ी एक कप चाय किसी भी आलिशान रेश्त्रां की महँगी coffee से ज्यादा उर्जा देती है। इस उर्जा को पाने के लिए क्या लखपति होना जरुरी है ? लखपति, करोडपति बनने के लिए हम सब भाग रहे हैं । जब वो मिल जाता है, तो क्या वो रह जाते हैं , जिनके लिए हम ये पाना चाहते थे ?

संजीव श्रीवास्तव

Sunday 8 November 2009

WHEN WATER IGNITES FIRE (Sino-Indian relationship)


Sino-Indian relationship again hit the headlines; With the Indian Remote sensing agency (IRSA), a government of India body, reporting the construction of dam on the Chinese side of the river Brahmaputra. In its report to the cabinet secretary, the agency said that the construction activities are going on the river Brahmaputra called Tsangpo in China. Just after the report came, Indian foreign secretary Nirupama Rao said in a press conference that China has denied any such activity. She said that the issue was raised on the sidelines of the ASEAN meeting between Prime Minister Manmohan Singh and Chinese Premier Wen Jiabao. The issue was also discussed during the foreign secretary level talk in Bengaluru last month. China openly said that it is a responsible country and it has no intention to stop the flow of the river Brahmaputra.

India is concerned about the construction of dam on the river Brahmaputra as it receives 30% of its total water resources from this river. If the flow of the river is stopped once, a large portion of arable land will come under the threat of draught. Apart from irrigation, this river plays a significant contribution in the electricity production of the country. According to a senior officer in the ministry of water resources, the proposed hydel power projects will produce around 99,256 MW electricity.

When I talk to a senior journalist Mr. sayeed Naqvi on this issue, he said that it’s an issue more hyped by the media. The ground reality is not as the media is trying to portray. He said that we should listen to what is the official version of the two countries.

A daily had earlier expressed the fear that China is trying to control the flow of the river Brahmaputra by constructing a dam over the river Brahmaputra.
Now, the question is, should we ignore the report of IRSA,just because China says otherwise. Replying to this question, Minister for water resources, Mr. Pawan Kumar Bansal said that there is no bilateral water treaty between India and China. So india can’t oppose if China carries out any construction activity on its side of the river. We can express concern only if it tries to divert the 7.9 billion cubic meter water that flows into India.

When it was asked to Professor Qamar Agha that how appropriate is this official stand, he said that India has changed and there is no chance of both the countries going for aggressive posturing. The need is to avoid sensationalisation of the issue. He also said that such reports come due to the foreign powers who do not want the relations between the two countries to normalize.

China is developing fast. Be it Tibbet, Taiwan, Aksai Chin or Arunanchal, China has firmly crushed all the barriers that came in between development. Despite, India’s foreign ministry saying that Sino-Indian relations are normal; India can’t accept assurances of a bloody 1962 war. Anyway, there have been predictions that if there will be a third world war, it will be for water.

Sanjeev Srivastava

Sunday 1 November 2009

The story of Doordarshan


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Television service was started in India by the Government of India on 15th September 1959. It was called Doordarshan. Being started by the government for developmental purpose, it was called public service broadcaster. In its fifty years of journey, Doodarshan has witnessed many ups and downs.
In its early years Doodarshan was a part of All India Radio. It was only in 1976 that it was separated from All India Radio and became a National Broadcaster. It soon became a favourite platform of entertainment for common man. Apart from film industry it was the only platform that provided ‘on the screen entertainment’ to the common people. Since it was the first TV channel, it started most of the multiplicity of programs that we see on most of the private channels, be it soap- opera, mythological dramas and commercials as well. Eighties was the era when Doordarshan glued millions with soaps such as Humlog(1984),Buniyaad(1986-87),Ramayan(1987-1988) and Mahabharat(1988-89) .

In nineties, Private television channels infiltrated into the Indian boundaries and entertain the viewers as much as possible. These channels gave tough competition to Doodarshan.
Why Doodarshan has became less effective than private channels?

Still, Doodarshan has reach to the 98% of our population, but does it really play the role that is expected from a public service broadcaster?

This and many more other queries are to be explored in this radio package.
Sanjeev Srivastava

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