Saturday 6 February 2010

यहाँ बूढ़े भी शान से साइकिल पे चलते हैं !


बिना हीटर के सर्दी में, बिना बिजली के गर्मी में,
नहीं सुनता जिसकी यहाँ, बाबू भी दफ्तर में,
यहाँ अक्सर जो मरता है, डाक्टर की गलती से,
गुजर जाती है जिसकी उम्र, कचहरी की तारीखों में,

वो सूखे को भी सहता है, वो बाढ़ में भी बहता है,
वो ट्रैफिक में भी फंसता है, वो गढ्ढे में भी गिरता है,
मगर फिर भी वो अपना वोट, उसी लीडर को देता है,
जो खुद खाता है चारा मगर, बेटे को गद्दी दिलाता है, 

फिर क्यूँ चाहेगा कोई, यहाँ पर आम आदमी बनना,
जहाँ बड़ा आसां है, एक कातिल का नेता बन जाना,
जहाँ रक्षक ही करते हैं, सड़क पर सौदा इज्जत का,
फिर क्यूं न मुश्किल हो, यहां किसी आदमी का इंसां बन जाना,

जहाँ होती है मातृ-भाषा की, दिन-रात तौहीनी,
और इज्ज़त मिलती है उन्हें, जो बोलते हैं ‘अंग्रेजी’,
न जाने क्यों नहीं भाती, मुझे बातें इन ‘बड़े लोगों’ की,
मुझे तो मतलब है, बस अपने छोटे से आँगन की,

मुझे तो भाती है, बस उस गाँव की मिट्टी,
जो अपने संग लाती है, खुशबू मेरे बचपन की,
मैं रहना चाहता हूं बीच, उनके ही,
जिन्हें मेरी ज़रूरत है, और मुझे भी कम नहीं उनकी,

मैं खुश-किस्मत था, आ पहुंचा इस शहर तक भी,
पर वो ले नहीं सकते, टिकट एक पैसेंजर ट्रेन का भी,

मैं जाना चाहता हूँ, उनको सिर्फ ये बतलाने,
कि किस्मत अच्छी है उनकी, जो सोते हैं अपने छप्पर में,
यहां गर संग न हों पैसे, तो घुस नहीं सकते बमपुलिस में भी,

वहां पर रूखी-सूखी है, मगर इज्ज़त तो है अपनी,
यहां तो खाली हुआ जहां बटुआ, तो पत्नी भी नहीं अपनी,

यहां मिलता है घर, किराया और एडवांस देने पर,
मगर मिलती नहीं हवा और धूप, पूरा फ्लैट लेकर भी,

वहां लोग रोज मिलते हैं, मोहल्ले और चौपालों में,
यहां मिलना होता है, कभी दिवाली तो कभी होली में,

हैं मुश्किलें वहां पर भी, यहां पर भी,
यहां तो मुश्किल है, जीना भी और रहना भी,
वहां भी रहना मुश्किल है, मगर नहीं है इतना भी,

यहां पर बच्चे भी शरमाते हैं, बाइक से चलने में,
वहां बूढ़े भी शान से, साइकिल पर चलते हैं,

यहां तो बीतती है रात किसी की बार, किसी की डिस्को में,
वहाँ तो रात होते ही बिछ जाती हैं खाटें, आंगन और मुहाने में,

यहां सब सुन्दर है, सब है बड़े सलीके में,
पर न जाने क्यूं, वहां की अल्ल्हड़ता बसी है सीने में,

मैं आता हूं जब भी शहर, गाँव याद आता है,
पर जब जाता हूं गांव, शहर का सब भूल जाता है।
            
             संजीव श्रीवास्तव 

Sunday 31 January 2010

दलाली यहाँ का सबसे बड़ा रोज़गार है

दिल्ली में आए थे, सुना था नाम बड़ा इसका
देखा तो यहां हर तरफ बिखरी थी गरीबी

दिन भर भटकते हैं जो रोटी की तलाश में
रातों को सोते पाया उन्हें कूड़ेदान में

है रोशनी हर तरफ, रौनक है हर तरफ
मेट्रो में हैं ठुसे और, पड़ोसी से बेखबर

रातों में इंस्टा-एफबी से मिटती है तन्हाई
अपनों से दूर दिल्ली में यूं बितते हैं दिन  

मिलता तो इस शहर में सबको रोजगार है
पर, किराएदारी यहां सबसे बड़ा कारोबार है

मिलती है सस्ती रोटी, यहां पानी है महंगा
दलाली यहां का सबसे बड़ा रोजगार है

कमरे की दलाली यहां, गाड़ी की दलाली
कहते हैं जिस्म की दलाली भी यहां जोरदार है।

संजीव श्रीवास्तव

Monday 25 January 2010

इन सबके पीछे थी कहीं दौलत की ज़रूरत !

कश्ती को कई बार भँवर में फँसते हुए देखा,
जिंदगी को कई मोड़ पे रुकते हुए देखा,
अब तक के सफ़र में, कई ऐसे भी दौर हैं
जब खुद को सरेआम शर्मिंदा होते हुए देखा,

कभी कपड़ों, कभी सूरत, कभी अपनों से मिली ज़िल्लत
कभी जूते के उखड़े सोल से आॅफिस में हुई ज़लालत,
इन सबके पीछे थी कहीं दौलत की ज़रूरत,
जिसने हर मकाम पे दिलाई हमें ज़िल्लत,

अक्सर अखबारों में यहाँ छपते हैं ये किस्से,
वो टॉप कर गए जो महंगी कोचिंग से थे निकले,
अब क्या करें वो जिनको नहीं रोटी भी मयस्सर,
वो भी बनेंगे सुर्खी जब, फुटपाथ पर चढ़ेगी मोटर   

काबिल हैं वो जो खुद को औरों से रक्खें आगे,
वो क्या रहेंगे आगे जिन्हें रोटी की फिक्र है,
रोटी तो भरती पेट है , लाती नहीं रौनक
रौनक तो लाई जाती है चेहरा मसाज से,

भाते नहीं गरीब जिन्हें रेंगते हुए,
देते हैं वो भाषण जिन्हें कुत्तों से प्यार है,
कहते हैं वो खुद को गरीबों का रहगुज़र,
वो जिनको पता भी नहीं, भाजी क्या भाव है।

संजीव श्रीवास्तव

Saturday 23 January 2010

ये दौर बहुत मुश्किल है मगर ...

ये दौर बहुत मुश्किल है मगर
न जाने क्यूँ इसे सहता हूँ,
मेरे साथ कई रहबर हैं मगर
उन पर नहीं होता कोई असर।

मैं काहिल हूं, वो मेहनतकश
मैं हर काम में जान लड़ाता हूं,
वो जाम लड़ा कर कहते हैं...
तू काम बहुत करता है मगर, हम गधों से दूर ही रहते हैं।

वो कमजोरों पर हँसते हैं, उन्हें पिछड़ा कहते रहते हैं
ये देख के पीड़ा होती है कि 'साहब' भी उन्हीं की सुनते हैं,
ये खेल तमाशेबाजी का, मैं सीख भी लूं तो किसके लिए
हारुंगा तो अकेला रोउंगा, मैं जीता तो वो सब रोएंगे।

रोते को हँसाना चाहता था, गिरते को उठाना चाहता था
जो सबसे पीछे था उसको, मैं आगे लाना चाहता था
पर.. जो आगे हैं वो कहते हैं,
ये काम है नेता-मसीहा का, और खुद रिश्वत पर जीते हैं। 

अब सोचता हूँ, पिछड़ा किसको कहूँ
जो पीछे हैं या नीचे (नीच) हैं,
ये दौर बहुत मुश्किल है क्योंकि, यहां आगे वाला पिछड़ा है
जो पीछे है वो बढ़िया है, जो आगे है वो घटिया है।

संजीव श्रीवास्तव

Friday 22 January 2010

क्यूँ पहुँच गए इस राह पे हम?

जीवन को समझना आसां नहीं,
किसी राह पर चलना आसां नहीं,
कह सकता हूं ये मैं क्योंकि, कई राहों से होकर गुजरा हूं
किसी राह में क्या दुश्वारी है, ये जाना जब एक ठोकर लगी।

बचपन में घर वालों ने कहा,
जवानी में जग वालों ने कहा,
अब चलता हूँ बस चलने के लिए,
उन सबको खुश रखने के लिए।

ऐसी भी कई राहें हैं जो, अब अक्सर याद आती हैं हमें
उन राहों पर थे साथी कई, वो सफ़र सुहाना लगता था
वो साथी आगे निकल गए, पर मैं अभी भी चलता हूँ
ये राह कठिन तब लगती है, वो साथी जब याद आते हैं

अक्सर ये सवाल परेशां करता है,
क्यूँ पहुँच गए इस राह पे हम,
ये तो हमारी राह न थी,
इसपे न तो कोई साथी बना,
न ये सफ़र सुहाना लगता है,

क्यूँ चुना ये सफ़र अब लगता है,
थी फिक्र हमें पैसों की बहुत,
था बेगारी का डर भी हमें,
थी उम्र निकलने की भी फिकर,

क्या करूँ घर में बहन कुंवारी थी, भाई की गंभीर बीमारी थी
अब मज़बूरी चलाती है, और हमको चलना पड़ता है
गर यूं हीं चला इन राहों पर, तो ये राहें शायद बच जाएं
गुर्बत तो फिर भी सह लेंगे, पर शायद हम न बच पाएं।

मुश्किल है इन राहों पर चलना क्योंकि,
जिंदा दिखता है इंसा बस, कोई रूह नहीं न उसमें जिगर
इसीलिए इन राहों पर, कोई साथी नया नहीं बनता है
अब समझा ये सफ़र हमें, सुहाना क्यूँ नहीं लगता है।

संजीव श्रीवास्तव

Thursday 21 January 2010

अब नींद चैन की आती है !


जब
मै जाड़ों में घर पर होता था,
दालान में धूप सेंकता था,
अक्सर वहीँ चारपाई पे ही सो भी जाता था,
मेरी माँ मुझे अपना पसंदीदा साल उढ़ा देती थी,
उसे कोई और मांगे तो डांट सुना देती थी,

यहाँ धूप तो होती है उसी सूरज से मगर,
यहाँ वैसी नींद नहीं आती है,
जब कभी यहाँ झपकी लगती है ,
माँ के साल की याद आती है

इस बार जब मै घर पे गया,
और लौटने लगा जब घर से यहाँ,
माँ ने खाना बाँध दिया,और करने लगी बिदा मुझे,
मैने ठण्ड लगने का बहाना किया,
और वही पुराना साल मांग लिया

अब दूर हूँ घर से और माँ से भी,
पर सीने पर साल रखता हूँ,

रातों में रजाई के अन्दर,
जैसे
माँ से लिपटा रहता हूँ,
ठण्ड तो क्या जायेगी उस पुराने साल से लेकिन,
अब नींद चैन की आती है

संजीव श्रीवास्तव

Sunday 17 January 2010

कुम्भ की कथा

कुम्भ की कथा का वर्णन विष्णुपुराण में मिलता है। जब देवताओं और असुरों में संग्राम हुआ तो देवता हारने लगे। ऐसे में उन्होंने श्री विष्णु से मदद की गुहार लगाई। विष्णु ने देवताओं को असुरों के साथ मिलकर समुद्र मंथन करने का सुझाव दिया। विष्णु के अनुसार इस समुद्र मंथन से निकलने वाले अमृत को पीकर देवता अमर हो जायेंगे और फिर असुरों को आसानी से हरा सकेंगे।

असुर अमृत के लालच में देवताओं के साथ समुद्र मंथन करने के लिए तैयार हो गए। विष्णु के अवतार कछप की पीठ पर विराट मद्रांचल पर्वत को मथनी बनाया गया और नाग राज वासुकी को रस्सी बना कर असुरों और देवताओं ने समुद्र मंथन शुरू किया। समुद्र मंथन से एक-एक कर कुल चौदह महारत्न निकले। इस मंथन से हलाहलविष भी निकला जिसे पीने से भगवान शिव का कंठ नीला हो गया और वो नीलकंठ कहलाए। समुद्र मंथन के अंत में धनवन्तरी अमृत-कलश ले कर प्रकट हुए। अमृत को पाने के लिए देवताओं और असुरों में पुनः युद्ध छिड गया।

युद्ध को रोकने के लिए विष्णु ने मोहनी (अत्यंत सुन्दर स्त्री) का रूप धारण किया। मोहनी ने दोनों के बीच समझौता कराया कि वो एक-एक कर देवताओं और असुरों को अमृत-पान कराएगी। मोहनी ने छल से सिर्फ देवताओं को ही अमृत पिलाना शुरू कर दिया। असुरों में से एक असुर राहु को इस बात का पता लग गया और वो वेश बदल कर देवताओं के बीच जा बैठा। सूर्य और चन्द्रमा को इस बात का पता लग गया। उन्होंने मोहनी को इस बात से परिचित कराया लेकिन तब तक वो अमृत-पान कर चुका था। इस पर विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से राहु का सर धड़ से अलग कर दिया। उसके दो हिस्से ही राहू और केतु कहलाए। चूँकि वो अमृत पी चुका था,इसलिए ऐसा माना जाता है कि वही राहु और केतु सूर्य और चन्द्रमा पर अपनी काली छाया डाल कर ग्रहण का निर्माण करते हैं।

इसी बीच अमृत को असुरों से बचाने के लिए इन्द्र के पुत्र जयंत अमृत कलश लेकर वहां से भागने लगे। वो लगातार १२ दिन तक भागते रहे। इस दौरान अमृत की कुछ बूंदे १२ स्थानों पर गिरी। जिनमे से चार स्थान पृथ्वी पर और आठ स्वर्ग पर थे। पृथ्वी पर ये चार स्थान थे - प्रयाग (इलाहाबाद), नासिक, उज्जैन और हरिद्वार। देवताओं का एक दिन मनुष्यों के १२ साल के बराबर होता है, इसीलिए हर बारहवे साल इन स्थानों पर महाकुम्भ का अयोजन होता है।

इस वर्ष ये पवित्र आयोजन हरिद्वार में हो रहा है। इस आयोजन में देशभर के १३ अखाड़े शामिल होंगे। इनमे से ७ अखाड़े दशनामी सन्यासियों के हैं,जिनमे नागा साधु शामिल होते हैं। अखाड़ों के स्नान को शाही स्नान कहा जाता है। पहला शाही स्नान १२ फ़रवरी को, दूसरा १५ मार्च को और प्रमुख शाही स्नान १५ अप्रैल को है। इस महापर्व की पूर्णाहुति २८ अप्रैल को, वैशाखी अधिमास पूर्णिमा स्नान के साथ होगी। उत्तराखंड सरकार ने कुम्भ से सम्बंधित एक वेबसाईट का भी निर्माण किया है जिसपर महापर्व से सम्बन्धित सूचना पायी जा सकती है। वेबसाइट का लिंक है - http://www.kumbh2010haridwar.gov.in

संजीव श्रीवास्तव

Tuesday 12 January 2010

मुझे अक्सर अनदेखा कर देते हैं !


क्या था कह नहीं सकता,

क्यूँ था कह नहीं सकता,
कैसे हुआ कह नहीं सकता,
कब हुआ कह नहीं सकता,

क्यूँ हुआ कह नहीं सकता,
जो हुआ कह नहीं सकता,
किसने किया कह नहीं सकता,
कहते हैं जो होता है अच्छा होता है,

जो हुआ अच्छा हुआ,
जो होगा अच्छा होगा,
फिर क्यूँ अच्छा नहीं लगता,
जो हुआ या जो हो रहा है मेरे साथ,

सोचता था खूब पढूंगा,
खूब बड़े काम करूँगा,
जरुरत पड़ी तो जान भी दे दूंगा,
खून-पसीना एक कर दूंगा,

ऐसा नहीं है कि परेशानियाँ नहीं आई कभी,
ऐसा भी नहीं है कि दुशवारियां नहीं आई,
फिर भी करता रहा जो कर सका,
लड़ता रहा जहाँ तक लड़ सका।

अब कभी-कभी लगने लगता है कि,
शायद अब न लड़ सकूँगा,
शायद अब न जीत पाउँगा,
शायद अब न दौड़ पाउँगा,

ये अहसास मुझे अक्सर दूसरों को देख कर होता है,
उन्हें, जिनके पास पिता का साया है,
जिनके पास माँ का प्यार है,
जिनके पास अपना घर है,

जिनके पास खर्च करने के लिए पैसे हैं,
जिनके पास अच्छे कपडे हैं,
जो पढने के लिए किताबें खरीद सकते हैं,
जो जरुरत कि हर चीज खरीद सकते हैं।

मै सहम जाता हूँ जब खुद को उनके बीच पाता हूँ,
सोच में पड़ जाता हूँ, कैसे पहुँच गया इनके बराबर?
जबकि मेरे पास ना तो पिता हैं, ना उनका सहारा,
न घर है, न खर्चने के पैसे, किताब तो क्या कभी-कभी
पेन की रिफिल खरीदने के भी पैसे नहीं होते जेब में,

मेरी तंगहाली मेरे सहपाठियों से मुझे दूर कर देती है,
क्यूँकी मेरे कपड़े थोड़े भद्दे होते हैं,
वो लेटेस्ट ट्रेंड से मैच नहीं खाते,
मै हफ़्तों एक ही जोड़े में गुज़ार देता हूँ,
उन्हें लगता है मै बहुत गन्दगी से रहता हूँ,

उन्हें लोग बड़ी इज्ज़त देते हैं, मुझे अक्सर अनदेखा कर देते हैं,
वो वीकेंड पर पित्जा खाने की बात करते हैं तो मै सकपका जाता हूँ,
इन सब के कारण मै भीड़ में भी तनहा महसूस करता हूँ,
उन्हें मुझ पर हँसता हुआ देख, खुद भी हंसने का दिखावा करता हूँ।

लोग कहते हैं दिखावे पर मत जाओ,
लेकिन आज तो वही बिकता है जो दिखता है,
मै उनके बीच अक्सर अनदेखा कर दिया जाता हूँ,
इसलिए कभी-कभी लगने लगता है कि,
शायद अब न लड़ सकूँगा
शायद अब न जीत सकूँगा ...

संजीव श्रीवास्तव

Monday 11 January 2010

क्या जीना सच में इतना मुश्किल है?


क्या अक्सर ये बताया जा सकता है कि, आप खुश हैं?

या ये कि आप खुश नहीं हैं?
कई बार हम बताना चाहते हैं, लेकिन बता नहीं पाते,
कई बार हम कहना चाहते हैं , लेकिन कोई सुनने वाला नहीं होता ।
क्यूँ ऐसा होता है कि हम चाहकर भी कह नहीं पाते,
कह कर भी बता नहीं पाते,
क्या जीना सच में इतना मुश्किल है?
क्या खुश रहना इतना मुश्किल है?
कहाँ है ख़ुशी ?
हमारी सफलता में?
हमारे रिजल्ट कार्ड में ?
हमारे प्रमोशन में ?
टी. वी. सिरीयल में?
मल्टीप्लेक्स में?
डिस्को-थेक में?
स्कूल में?
कॉलेज में?
ऑफिस में...
अक्सर मै खुश महसूस करता हूँ,
जब अकेला होता हूँ,
जब दोस्तों के साथ होता हूँ,
जब कोर्स से अलग कोई किताब पढ़ता हूँ,
जब घर का खाना खाता हूँ,
जब स्कूल से घर जाता था,
जब ऑफिस से निकल आता हूँ,
जब किसी के साथ हँसता हूँ,
जब किसी को हँसाता हूँ,
जब-जब अपने मन की करता हूँ,
तब-तब मेरे सिवाए सब नाखुश होते हैं,
मन करता है कि कुछ नया करूँ,
कुछ अलग करूँ,
कुछ ऐसा करूँ , जिससे किसी को हँसा सकूँ,
किसी को जीता सकूँ, किसी को विश्वास दिला सकूँ,
कि वो भी खुश हो सकता है,
कि वो भी वो सब कर सकता है जो उसका मन करता है।
फिर डर जाता हूँ कि,
क्या ऐसा करके बड़ा घर बना सकूँगा?
क्या ऐसा करके बड़ी गाड़ी खरीद सकूँगा?
क्या ऐसा करके मल्टीप्लेक्स में जा सकूँगा?
क्या ऐसा करके लेवाइस की जींस पहन सकूँगा?
फिर भी ऐसा करके मै खुश क्यूँ हो जाता हूँ?
जबकि और कोई भी मेरे घर में खुश नहीं होता,
जबकि घर में सब चाहते हैं कि मै खुश रहूँ।

संजीव श्रीवास्तव

Sunday 10 January 2010

आंकड़ो में सिमटती गरीबी


गरीबी
रेखा को लेकर हमारे देश में इतनी रिपोर्ट्स चुकी हैं कि फैसला करना मुस्किल हो जाता है कि आखिर हमारे देश में गरीबों की वास्तविक संख्या क्या हैराष्ट्रीय सांख्यकी आयोग के पूर्व अध्यक्ष सुरेश तेंदुलकर ने दिसंबर २००९ को अपनी रिपोर्ट पेश करते हुए बताया कि अभी भी ३७.% जनसंख्या गरीबी रेखा के नीचे रहती है जहाँ शहरों में २५.% लोग गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर कर रहे हैं वहीँ गावों में ये संख्या ४१.% हैइस रिपोर्ट में वर्ष २००४-०५ को आधार वर्ष बनाया गया है

विश्व बैंक मानता है कि भारत में ४२% लोग गरीबी रेखा के नीचे रह रहे हैंजबकि २००७ में अर्जुन सेन गुप्ता समिति ने ये बता कर सबको चौंका दिया था कि देश कि ७७% जनसँख्या २० रूपए से भी कम पर गुजारा करती है ग्रामीद विकास मंत्रालय द्वारा गठित एन सी सक्सेना समिति के अनुसार ये संख्या ५०% है

देश में पहली बार गरीबी रेखा का निर्धारण १९७३ में किया गयाइस निर्धारण का आधार था कि प्रति व्यक्ति को कितनी कैलोरी उर्जा प्रतिदिन प्राप्त होती हैमाना गया कि अगर शहर में रहने वाले व्यक्ति को प्रतिदिन २१०० कैलोरी और गाँव में रहने वाले व्यक्ति को प्रतिदिन २४०० कैलोरी उर्जा मिलती है तो वो गरीबी रेखा के ऊपर हैउस समय इतनी कैलोरी उर्जा शहर में ७१ रूपए में और गाँव में ६२ रूपए महीने में पाई जा सकती थी

२००४ - ०५ तक सरकार ये मानती रही कि इतनी कैलोरी उर्जा शहर में ५३९ और गाँव में ३५६ रूपए खर्च करके पाई जा सकती है। इन्ही कसौटियों की देन रही कि जहाँ १९७३ में देश में गरीबों कि संख्या ५५% थी, वहीँ १९८३ मेंघट कर ४४% हुई और १९९३-९४ में ये ३६% हो गई। अब महज ३७.२% गरीब ही देश में रह गए हैं।

ये समझाना किसी के लिए भी मुस्किल नहीं होगा कि महज ५३९ या ३५६ रूपए महीने में किसी भी गाँव या शहर में कितने कैलोरी वाला खाना मिल सकता है। क्या सिर्फ खाना ही वो पर्याप्त आधार है जिससे इस बात का निर्धारण किया जा सकता है कि कोई व्यक्ति गरीब है या नहीं? क्या तन ढकने के लिए कपड़ा, रहने के लिए छत और शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी चीजे सिर्फ अमीरों के लिए ही जरुरी हैं?

शायद अभी भी हम उस औपनिवेशिक सोच से बाहर नहीं निकल पाए हैं कि अमीर और गोरों की तरह गरीब और काले इंसान को भी जीने के लिए मानवीय परिस्थितियों की दरकार है।

संजीव श्रीवास्तव

Tuesday 5 January 2010

क्या हम दोस्त नहीं बन सकते?


पिछले हफ्ते मुंबई में लगातार चार दिनों में चार लोगो ने आत्महत्या की । आश्चर्य की बात ये कि उनमे से दो बच्चोंकी उम्र १२ वर्ष से भी कम थी। तीसरी एक १८ वर्षीयमेडिकल स्टुडेंट थी और चोथी युवती २८ वर्ष की थी जोमुंबई में ही एक विज्ञापन एजेंसी में काम करती थी।

ये घटनाये देखने में भले ही अलग लगे लेकिन आपस मेंजुडी हुई हैं। ११-१२ वर्ष क़ी उम्र एक ऐसी अवस्था है जबहमारे पास बहुत कम वक़्त होता है। क्या-क्या नहीं करना होता । सुबह उठ कर स्कूल जाना, फिर स्कूल में दोस्तोंके साथ खूब सारी बातें करना। सपनो के घर बनाना। वापस घर आना। आते ही अपना मनपसंद कार्टून चैनलदेखना। फिर होम वर्क करना। पापा-मामा से बातें करना। और न जाने क्या-क्या।

इस उम्र में डांट पड़ना या कभी-कभी पिटाई हो जाना तो आम बात होती है। स्कूल में होम-वर्क न करने क़ी वजह सेपिटाई होती है तो घर पर ज्यादा देर तक खेलने या टी. वी. देखने पर। लेकिन कौन परवाह करता है, थोड़ी देर रोयेफिर अपने-आप ही चुप हो गए और लग गए अपने काम पर फिर से। ऐसा नहीं है कि उस उम्र में दबाव नहीं होताथा। लेकिन शायद अब बच्चे कम उम्र में ही ज्यादा समझदार होने लगे हैं।

समय बदला है। समय के साथ बच्चों क़ी सोच भी बदली है । समय के बदलाव में जिस तत्व ने सबसे अहम् भूमिकानिभाई है, वो है सूचना-तकनीकि। आज बहुत कम उम्र में ही बच्चे ऐसी बहुत सी बातें जान चुके होते हैं जिन्हें पहलेके लोग वयस्क होने पर भी बमुश्किल जान पाते थे। और सोचने वाली बात तो ये है कि उन बच्चों को तो इस बातका एहसास है लेकिन बड़े अभी भी इस बदलाव को समझ नहीं सके हैं। यही विरोधाभास जनरेसन गैप पैदा कररहा है। इस गैप का ही नतीजा है क़ी आज बच्चों और माँ-बाप के बीच की दूरी बढ़ती जा रही है। उनके बीच संवादकम होता जा रहा है। किसी भी रिश्ते में अगर बातचीत कम होने लगे तो समझ लेना चाहिए कि कुछ गड़बड़ है याबहुत जल्दी कोई बड़ी गड़बड़ होने वाली है।

कुछ वक़्त पहले तक बच्चे का doctar , enjineer , आई. ए.एस., वकील या मैनेजर बनना किसी भी माँ-बाप केलिए गर्व क़ी बात होती थी। लेकिन बदलते वक़्त ने बच्चों की उम्मीदों और उनके सपनो को नई दिशा दिखाई है।आज के बच्चों को सिनेमेटोग्राफर , फोटोग्राफर ,डांसर , मयूजिशन जैसे प्रोफेशन अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं।उनके आदर्शों में सचिन तेंदुलकर, सानिया मिर्जा, अभिनव बिंद्रा, करीना और कटरीना जैसे लोग शामिल हो चुकेहैं। ऐसा नहीं है कि आज का युवा डोक्टर,इंजीनियर या scientist बनना ही नहीं चाहता, लेकिन आज के बच्चे यायुवा किसी से प्रेरित होने कि जगह अपने दिल क़ी आवाज और अपने intarest को ज्यादा तवज्जो देते हैं।

जो माँ-बाप इस बदलाव को जितनी जल्दी समझ जाते हैं वो अपने बच्चों को उतने ही अपने करीब पाते हैं। लेकिनदुर्भाग्य से आज भी ऐसे माँ-बाप हैं जो अपने बच्चे का भविष्य बनाने के लिए उनपर अपने सपनो को थोपना चाहते हैं। माँ-बाप का इरादा हमेशा ही अपने बच्चों की ख़ुशी होता है, लेकिन मासूम नौनिहालों के कोमल कन्धों पर अपनेसपनो का बोझ डालने से पहले उनसे भी तो हमें ये पूछना चाहिए की आखिर वो क्या चाहते हैं।

हमारे सपने हमारे बच्चों से ज्यादा कीमती तो नहीं हैं ? अक्सर हम अपने बच्चों पर कुछ खास करने का दबावडालते हैं क्यूंकि हमें लगता है कि इससे समाज में हमारा सम्मान बढेगा, हमारी इज्जत बढ़ेगी, लेकिन इस झूठीशान ने न जाने कितने होनहार युवाओं और बच्चों से उनकी जिंदगियां छीन ली हैं। ये सिलसिला रोकना होगा औरइसका सिर्फ एक ही रास्ता है; हमें अपने बच्चों को अपना दोस्त बनना पड़ेगा। हमें उनसे बात करनी होगी, उन्हेंसमझना होगा और समझाना भी होगा।

संजीव श्रीवास्तव