Monday 28 November 2011

प्रतिद्वंदिता,पत्रकारिता, हत्या, जेल कहीं ये किसी बड़े खतरे का संकेत तो नहीं?


गत 11 जून 2011 को मुंबई में अंग्रेजी अखबार में काम करने वाले एक वरिष्ठ पत्रकार ज्योतिर्मय डे (जे डे) की दिनदहाड़े गोली मारकर हत्या कर दी गई. जांच में पता चला कि इस हत्या को छोटा राजन के गुर्गों ने अंजाम दिया है क्योंकि राजन लगातार अपने खिलाफ लिखे जाने की वजह से जे डे से नाराज था.

जांच और आगे बढ़ी तो पता चला कि छोटा राजन के गुर्गों को जे डे की टाइमिंग और लोकेशन बताने में मुंबई की ही एक महिला पत्रकार का हाथ था. एशियन एज के लिए काम करने वाली 37 वर्षीय पत्रकार थी 'जिगना वोरा'. पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया है.

अभी तक जो तथ्य सामने आये हैं उनसे पता चला है कि जिगना वोरा और जे डे दोनों ही क्राइम बीट पर काम करते थे और कमोबेश ख़बरों के लिए दोनों ही अंडरवर्ल्ड के लोगों से लेकर पुलिस के लोगों तक अपनी पहचान रखते थे. इन्हीं सूत्रों में एक नाम था फरीद तानशा जिसे छोटा राजन का आदमी माना जाता था. हालाँकि जून 2010 में उसकी भी हत्या हो गई.

ऐसा माना जाता है कि तानशा के घर पर ही इन दोनों का आमना-सामना हुआ और अपने सूत्रों के इस्तेमाल को लेकर दोनों में काफी कहासुनी हुई. तभी से जिगना ने छोटा राजन को जे डे के खिलाफ भरना या भड़काना शुरू कर दिया. जे डे की ख़बरों और जिगना के फीडबैक से छोटा राजन का दिमाग घुमा और गुस्से में उसने जे डे को ख़त्म करने का फरमान जारी कर दिया.

हालाँकि हत्या के बाद मीडिया में ये खबरे आईं कि छोटा राजन ने माना है कि जे डे की हत्या कराना गलत था और एक पत्रकार के तौर पर वह जो कुछ भी लिख रहा था वो उसकी ड्यूटी थी न कि राजन से कोई व्यक्तिगत खुन्नस.

एक्सक्लूसीव और ब्रेकिंग न्यूज लेने कि जल्दबाजी और रातोरात बड़ा पत्रकार बन जाने की चाहत ने एक गंभीर और वरिष्ठ पत्रकार की जान ले ली और एक दूसरे वरिष्ठ और गंभीर पत्रकार को अपराधी बना सलाखों के पीछे पहुंचा दिया.

खुद मै भी इसी पेशे से जुड़ा हूँ. कॅरियर के पहले दिन से ही मैंने अपने आस-पास ख़बरों के लिए लोगों को आपस में लड़ने-झगड़ने से लेकर फब्तियां कसते, बुराई करते, नीचा दिखाने के मौके तलाशते देखा. शुरू में लगा कि शायद इसे ही पेशेवर और प्रतियोगी माहौल (professional and competetive enviroment) कहते हैं.

न जाने क्यों मुझे ऐसा लगता है कि इस पेशेवराना और प्रतियोगी माहौल को निर्मित करने वाली शक्तियों और उनके मकसद को स्पष्ट किया जाना चाहिए. अन्यथा बिना गोली चले भी कई प्रतिभाशाली लोगों का कत्ल हो सकता है या शायद रोज हो ही रहा हो, क्या पता?

Friday 25 November 2011

एक सवाल जो तीन साल बाद भी कर रहा है अपने जवाब का इंतजार...


आज से ठीक तीन साल पहले मुंबई में समुद्र के रास्ते दस आतंकी आए और पूरे शहर में आतंक का घिनौना खेल खेला. इस हमले ने अगले 60 घंटों तक पूरे देश को एक तरह से बंधक सा बना लिया. दिल्ली से लेकर देश के गांव-गांव तक लोग यही सोच रहे थी कि आखिर इस खूनी खेल का अंत क्या होगा?



29 नवम्बर की सुबह जब एन एस जी कमांडो ताज होटल से बाहर निकले तब जाकर पूरे देश को इस बात का यकीन हो सका कि 164 निर्दोष लोगों को मौत कि नींद सुला चुके दस में से नौ आतंकी मारे जा चुके हैं और एक को गिरफ्तार कर लिया गया है.



हमले के बाद सारे देश की निगाह दोषी या जिम्मेदारी तय करने के सरकारी खेल पर थी. लोग यह जानना चाहते थे कि आखिर इतनी बड़ी मात्रा में गोले-बारूद के साथ ये आतंकी देश में घुसे कैसे? आखिर क्यूँ सिर्फ दस आतंकियों पर काबू पाने में 60 घंटे का वक्त लग गया? सुरक्षा की इतनी बड़ी नाकामी के बाद इसे दूर करने के लिए सरकार क्या कदम उठाने वाली है?



सकते में आई सरकार ने माना कि इस हमले को पाकिस्तान में बैठे कुछ आतंकी संगठनों ने अंजाम दिया है. इसके बाद दिल्ली में यह घोषणा की गई कि जब तक पकिस्तान इन आरोपियों को देश को नहीं सौंपता दोनों देशों के बीच कोई वार्ता नहीं होगी. अमेरिका से लेकर ब्रिटेन तक ने इस हमले की घोर आलोचना की और पाकिस्तान को इस मामले में भारत का सहयोग करने की हिदायत दी.



हमारी सरकार ने जिम्मेदार संगठनो से लेकर आतंकियों तक का नाम पाकिस्तान को सौंपा. इनमे से कुछ को पाकिस्तानी सरकार ने हाउस अर्रेस्ट तक किया जिनमे सबसे बड़ा नाम था जमात-उद-दावा प्रमुख हाफिज़ मुहम्मद सईद का.



कुछ ही दिनों बाद यह साबित हुआ कि पाकिस्तानी सरकार कि यह कार्यवाही सिर्फ एक दिखावा मात्र है, क्यूंकि लाहौर कोर्ट के आदेश पर सरकार ने सईद को आजाद कर दिया है और भारतीय सरकार पर आरोप मढ़ दिया कि हम उनके खिलाफ पर्याप्त सबूत नहीं दे पाए हैं.



हमारी सरकार ने माना कि समुद्र की सीमा पर्याप्त सुरक्षित नहीं है लेकिन आज भी इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है. न तो हमने मार्च 1993 में हुए मुंबई बम धमाकों से कोई सीख ली थी और न ही 26 /11 की घटना से. तभी तो 1993 के बाद भी 26 /11 जैसी घटना हुई और इसके बाद 13 जुलाई 2011 को मुंबई के व्यस्ततम इलाकों (झवेरी बाजार, दादर और ओपेरा हाउस में 8 मिनट में तीन बम धमाके में ३१ लगों की मौत) में फिर से वही हुआ जिसका डर था.



ज्यादा लाग-लपेट के बिना मूल बात अब भी वही है कि क्या आज भी हमारे समुद्र से लेकर हवाई रास्ते या सीमाएं इतनी सुरक्षित है कि हम बिना भय दिल्ली के चावड़ी बाजार से लेकर मुंबई की झवेरी बाजार या वाराणसी के घाटों पर निश्चिन्त होकर घूम सकते हैं?

Tuesday 15 November 2011

इम्तियाज़ अली की गंभीरता और फेसबुकिया गपशप


प्रीव्यू, रिव्यू और फेसबुक पर लोगों के कमेंट पढ़ने के बाद मैंने ये फिल्म देखी. फिल्म की स्क्रिप्ट से लेकर सिनेमेटोग्राफी और म्यूजिक पर सैकड़ों आर्टिकल तो आपको इंटरनेट पर ही पढ़ने को मिल जाएंगे और वो भी उन लोगों के जिनका नाम उनके किसी भी काम पर भारी पड़ता है.

हालांकि उनमे से किसी एक का भी नाम मुझे याद नहीं है, नहीं तो मै यहां पर लिखता जरुर. कम से कम आपको ये एहसास दिलाने की पूरी कोशिश करता कि मै भले ही इनके जैसा ब्रांड नहीं बन सका हूँ लेकिन इन्हें जानता और पढता जरुर हूँ. शायद इससे आपको मेरे 'टेस्ट' और मेरी 'क्लास' का अंदाजा लग जाता. खैर, इतना पढ़ने के बाद आप मेरा क्लास तो समझ ही गए होंगे.

सो, अगर आप मेरे क्लास से मैच करते हैं तभी आगे बढें वरना, इससे पहले कि आप पूरा पढ़ने के बाद फेसबुक पर मेरे मित्रों जैसा कमेंट करें और वहां से मुझे पता चले कि मै 'क्लासलेस' हूँ. प्लीज आप मुझे यहीं छोड़ दें!

अगर अभी भी आप पढ़ रहे हैं तो जाहिर है कि आपकी क्लास भी मुझ से ज्यादा बेहतर नहीं है. तो फिर 'क्लासमेट' से क्या शर्माना, जो भी कहना है खुल कर कहता हूँ...

'रॉकस्टार' फिल्म देखते हुए मुझे लगा कि आज के जमाने में अगर आपको कोई गंभीर बात कहनी है तो जितना हो सके उसमे कॉमेडी घुसाओ. तब हो सकता है कि लोग तुम्हारी बात सुन लें, वरना, अगर गंभीर बात को तुमने गंभीरता से कहा तो पक्का समझो कि सामने नहीं तो पीछे मुड़ते ही लोग तुमपर कस कर हंसने वाले हैं.

खासकर के किसी 'इंटैलिजेंट टाइप' के आदमी के सामने तो कभी भी कोई बात गंभीरता से कहना ही मत. क्योंकि गंभीरता यानि seriousness एक class होता है और क्लास सिर्फ इंटैलिजेंट टाइप के लोगों में होता है. हम जैसे फर्जी ब्लॉगरों या फेसबुकियों में नहीं.

और सही भी है भाई. जब तक तुम किसी बड़े अखबार या मैग्जीन में नहीं छपे तब तक कोई भला कैसे मान ले कि तुम भी कोई गंभीर बात कर सकते हो? और ऐसा भी नहीं है कि तुम किसी बड़ी हस्ती से ताल्लुक रखते हो या उनके खानदान से हो. अगर ऐसा होता तो जेनेटिक तौर (वंशानुगत आधार ) पर हममे गंभीरता का तत्व हो सकता था. लेकिन चूंकि, हमारे में इनमे से कोई लक्षण विद्यमान नहीं है सो, एक बात तो पक्की है कि हममे गंभीरता नामक कोई रोग नहीं है.

सो, इस फिल्म (रॉकस्टार) पर हम कोई गंभीर टिप्पणी करें और फेसबुक पर ही हमें क्लासलेस होने का अवार्ड मिल जाए इतना बड़ा सदमा सहकर 'रांझा'(फिल्म की नायिका) की तरह हम 'कोमा' में जाने का रिस्क नहीं उठा सकते. क्योंकि रांझा तो बड़े घर वाली थी और वो भी प्राग जैसे विदेश में थी, तो उसके घर वलों ने तो उसे किसी हाई-फाई अस्पताल के आईसीयू में भर्ती करा दिया. लेकिन अगर हमें आईसीयू में जाना पड़ा तो आपको तो पता ही है कि अपनी क्लास के मुताबिक हमें किसी सरकारी अस्पताल का आईसीयू ही नसीब होगा. जहाँ ज्यादातर मरीज या तो लावारिस होते हैं या ऐसे जिनके घर वालों के पास इतने पैसे भी नहीं होते कि फ्री में मिली दवा से पहले मरीज को ढंग का नाश्ता भी करा सकें.

चूंकि मेरा पाला ऐसे अस्पतालों से पड़ा है तो एक राज की बात और बताता चलूं कि इन अस्पतालों में डॉक्टर मरीज को बचाने की जगह इस फिराक में ज्यादा रहते हैं कि वो जल्दी से मरे. क्योंकि उन्हें पता होता है कि इस हालत के बाद अगर वो बच गया तो उसकी जिंदगी मौत से भी ज्यादा बदतर हो जाएगी.

सो, इम्तियाज अली साहब इस फिल्म के जरिए शायद कोई गंभीर बात कहना चाहते थे. इसीलिए उन्होंने फिल्म की शुरुआत कॉमेडी से की है. शायद उनका इरादा अपने दोनों तीर निशाने पर बिठाने का था. एक तो इंटैलिजेंट टाइप के लोगों को बुरा भी न लगे और दूसरा हमारे जैसे क्लासलेस टाइप के लोगों का मनोरंजन भी हो जाए.

इंटरवल के पहले तक मुझे ये बात समझ में नहीं आई कि इसके बावजूद इंटैलिजेंट टाइप के लोगों ने फिल्म को 'गा...' क्यों दी है और उसे फेसबुक पर जाहिर भी कर दिया है?

दरअसल, उनके गुस्से की वजह फिल्म का अगला हिस्सा है जहां पर इम्तियाज साहब ने गलती की है. उन्होंने आगे की बात को बेहद गंभीरता से कह दिया है. क्योंकि जब तक झाला भाई (कॉलेज कैंटीन का मालिक) जे जे को यह समझाते हैं कि बड़ा कलाकार बनने के लिए 'पेन' का होना जरुरी है तब तक तो बात सही लगती है लेकिन, जब पेन की वजह से जे जे जैसा क्लासलेस आदमी 'जॉर्डन' जैसा रॉकस्टार बनने लगता है तो इंटैलिजेंट टाइप के लोगों को गुस्सा आना और उसे फेसबुक पर जाहिर करना लाजिमी हो जाता है.

यानि आप लोगों को ये दिखाकर बरगलाना चाह रहे हैं कि प्यार में इतनी ताकत होती है कि जे जे जैसा ठेठ जाट भी जॉर्डन बन सकता है? बात अगर यहीं खत्म हो जाती तो भी ठीक था. अली साहब ने बात को और गंभीर बना दिया, और दिखा दिया कि इतना नाम,पैसा कमाने के बाद भी जे जे जैसा आदमी पगलाता नहीं है. बल्कि, अभी भी उसे उस प्यार की तलाश है जो जॉर्डन बनने के पहले उसे घर वालों से या रांझा से मिलता था.

भाई ये मामला तो साहब, गजब का गंभीर है. इस गजब की गंभीर बात को इम्तियाज साहब ने गंभीरता से कहने की भूल की है. शायद कहानी लिखने के चक्कर में वो इतने मशगूल हो गए कि ये बात भूल ही गए कि इस देश में इंटैलिजेंट टाइप के लोग भी हिंदी फिल्मे देखते हैं.

लेकिन इस फिल्म को देखने के बाद मुझे जे जे का कैरेक्टर और गुलाम अली की एक गज़ल दोनों एक साथ याद आ रहे हैं जिसे मै नीचे लिख रहा हूँ...

यही आगाज था मेरा, यही अंजाम होना था,
मुझे बर्बाद होना था, मुझे नाकाम होना था,
मुझे तक़दीर ने तक़दीर का मारा बना डाला,
चमकते चाँद को टूटा हुआ तारा बना डाला,
मेरी आवारगी ने मुझको आवारा बना डाला.

(मैंने आज ही 'रॉकस्टार' फिल्म देखी है)

बहरहाल, मैंने ये फैसला किया है कि जल्द ही इस फिल्म को दोबारा देखूंगा. लेकिन मै अपने किसी भी जानने वाले को इस फिल्म को न देखने की सलाह दूंगा. क्योंकि इम्तियाज साहब ने फिल्म में गंभीरता कुछ ज्यादा ही उड़ेल दी है.

Thursday 10 November 2011

शताब्दी के विशेष दिन पर एक आम आदमी की मरियल कहानी!


बचपन से ही मेरी एक आदत ने मुझे हमेशा ही परेशान किया है हालांकि, इसकी वजह से मेरे घर वाले भी कम परेशान नहीं रहे. लेकिन क्या करें हमारे मनीषियों ने ही तो कहा है कि भाग्य और आदत इंसान का पीछा कभी नहीं छोड़ते. जब मनीषी ही नहीं छुड़ा पाए तो मेरी क्या बिसात. खैर ज्यादा भाषण सुनने के आप आदि हो सकते हैं लेकिन आपको बता दूँ कि भाषणबाजी करने का मुझे बिलकुल भी शौक नहीं है. सो अब बात सीधे मुद्दे की.



मै बचपन से ही उन जगहों पर जाने से कतराता था जहां मेरे (स्कूल ले लेकर यूनिवर्सिटी तक के कोई भी) क्लासमेट जमा होते. या जहां परिवार के सभी हमउम्र जमा होने वाले होते. मै हर बार इन जगहों पर न जाने से बचने का एक ही बहाना बनाता और नतीजे में घर वालों का वही घिसा-पिटा लेक्चर मिलता - 'देखो, घर में मुंह छुपाए बैठा है जैसे किसी कि चोरी की हो, जिंदगी भर ऐसे ही मुंह चोर बने रहना.' हालाँकि कॉलेज या यूनिवर्सिटी में कोई ऐसी उलाहना देने वाला नहीं होता था तो वहां किसी तरह पीछे बैठकर या लोगों से मुह छिपाकर बच जाता था.



जब और बड़ा हुआ तो इसी स्थिति का सामना ऑफिस में भी हुआ. यहाँ भी मै काम करने तो टाइम पर आ जाता लेकिन पार्टीज या मीटिंग में जाने से बचने कि हर कोशिश करता था. लेकिन ऑफिस में आपका ऐसा करना अनुशासनहीनता कि श्रेणी में आता है. सो जाना जरुरी होता है. न जाने क्यों मुझे हमेशा ऐसा लगा कि इन मीटिंग्स या पार्टियों का एकमात्र मकसद चमचों और दलालों को फायदा पहुंचाना और दूसरों (या कहें हम जैसों) को यह एहसास दिलाना होता था कि -'देखो अगर तुम्हे भी जिंदगी में आगे बढ़ना है तो इन चमचों और दलालों से कुछ सीखो, वरना पड़े रहोगे ऐसे ही किसी कोने में, जिंदगी भर'. कई बार तो ऐसा भी हुआ कि पार्टी या मीटिंग के अगले ही दिन आपसे किसी ने पूछ दिया -'यार तुम थे उस मीटिंग में जिसमे सर ने अरविन्द की बड़ी तारीफ़ की थी?'



मीटिंग में बॉस और उनके चमचों ने मुझे अनदेखा किया इस बात का मुझे तनिक भी दुःख न था लेकिन धक्का तब लगा जब ये सवाल उस शख्स ने कर दिया जो मीटिंग में ठीक मेरे बगल में ही बैठा था और जिसे ऑफिस में मेरे सिवा कोई और बगल में बैठने भी नहीं देता.

इस सवाल को सुनने के बाद लगा कि जिसे मै अपना परम साथी और दुःख में सबसे बड़ा राहगीर समझ रहा था दरअसल वो खुद पूरी मीटिंग में इस कोशिश में लगा था कि बॉस या उनका कोई एक चमचा उसकी ओर देख लेता और कह देता कि साहब ये बंदा भी अच्छा काम कर रहा है.



जाहिर है ऐसे में उसे मेरा ध्यान कैसे रहता. इस झटके के बाद मुझे एह्साह हुआ कि दरअसल मेरा यह दोस्त कम से कम व्यावहारिक ज्ञान में मुझसे बीस है. उसे पता है कि अगर वो मेरी ओर देख भी लेता तो उसे क्या फायदा मिलता? न तो मुझमे चापलूसी करने की कला है और न ही मै दबंग का सलमान खान हूं जो बॉस के सामने ही उनके चमचों की पैंट गीली कर दे.



लेकिन इस मामले में बॉस लोग बेहद निरपेक्ष और न्यायी होते हैं. उनके दरबार में सबको समान अवसर होता है चमचागिरी के करतब दिखाने का. अब जो मैदान में खेल न दिखा सके वो भला कैसा खिलाडी? अब चूंकि लाख यतन करने के बाद भी हम जैसे कुछ लोगों का हर टीम में चयन हो ही जाता है सो ऐसे लोगों को खपाने के लिए ही रिजर्व खिलाडी या ट्वेल्थ मैन की व्यवस्था बनाई गई है. जबकि मेरे ऑफिस में ऐसे लोगों के लिए नाईट शिफ्ट है.ऐसा मै नहीं लोग कहते हैं.



बहरहाल, ऑफिस की मारामारी में मै मूल बात से तो भटक ही गया. लम्बे समय तक मै इस बात को नहीं समझ पाया कि आखिर क्यों मेरी दोस्ती (स्कूल से यूनिवर्सिटी तक) उन लोगों से ही रही जिनका एडमिशन कोटे के आधार पर होता था. जबकि मै हमेशा से ही सामान्य कोटे से एडमिशन पाया और अच्छे संस्थाओं में पढ़ा.



अक्सर मै इसी गलतफहमी में रहता था कि मै इनके साथ रहता हूँ क्यूंकि इन्हें मेरी जरुरत है. और एक अच्छा इंसान होने के नाते मेरा यह फर्ज है कि मै इनकी मदद करूँ. लेकिन हमेशा ही मेरे साथ ऐसा हुआ कि मौका मिलते ही वो मुझे छोड़ कर सामान्य कोटे वाले से दोस्ती कर लेते और फिर मुझपर ऐसे हँसते जैसे कि मैंने ही उनका रास्ता बंद कर रखा था. तब मुझे पता चलता कि दरसल इन्हें मेरी नहीं बल्कि मुझे उनकी जरुरत है. और मै ही नहीं चाहता कि इनमे से कोई भी सामन्य वर्ग के लोगों संग मेल-जोल बढाए और मै अकेला पड़ जाऊं.



अब सबसे पहले इस बात की समीक्षा कि मै इन कोटे वालों से ही दोस्ती क्यों करता आया हूँ? असल में भले ही मेरा प्रवेश सामान्य कोटे से होता था लेकिन कागज़ पर कोटे में सामान्य लिखा होने के अलावा मेरे साथ कुछ भी सामान्य नहीं था. गरीबी और अभाव में पला- बढ़ा होने की वजह से वह दरिद्रता मेरे चहरे से लेकर मेरे पहनावे तक से झलकती थी.



गरीबी एक अभिशाप है. इससे बड़ी कोई बीमारी नहीं है ( तभी तो सारी दुनिया इसे ख़त्म करने में लगी हुई है). इस बुराई का असर उस इंसान पर जरुर पड़ता है जो इसके साथ जीता है. सो गरीबी का असर मेरे व्यवहार पर भी उतना ही था जितना मेरे पहनावे और शक्ल पर. सामान्य वर्ग का होते हुए भी मेरा व्यवहार गरीबों जैसा ही था, इसलिए मै सामान्य वर्ग के लोगों के साथ उठने -बैठने से कतराता हूँ. सोचता हूँ कहीं मेरे शक्लो सूरत और व्यवहार की वजह से उनका अपमान न हो जाए. जबकि कोटे वालों के साथ उठने बैठने में कम से कम ये खतरा नहीं रहता.



पार्टियों-समारोहों में इन कोटे वालों की हमेशा ये कोशिश होती है कि काश! अगड़े वर्ग का कोई व्यक्ति हमारा हाथ पकड़ लेता और हमेशा के लिए हमें इस पिछड़ेपन से छुटकारा दिला देता. ऐसे में इन आयोजनों में कोटे वाले भी मेरा साथ नहीं देते थे. बस यहीं पर लोचा हो जाता है. न जाने क्यों इन कोटे वालों ने हमेशा मुझे अपनी ओर आकर्षित किया है लेकिन, इन अगड़ों की दिखावट ने पार्टियों में जाने की मेरी इच्छा को ही मार दिया.



मुझे अकेला देखकर किसी (दिखने वाले) अगड़े ने कभी मेरी ओर हाथ नहीं बढाया शायद इसलिए कि मै आज भी दिखावे और पहनावे से पिछड़ा दीखता हूँ और मेरे व्यवहार में अभी भी अगड़े होने का 'दंभ' नहीं आ सका है.

Wednesday 2 November 2011

पुस्तक समीक्षा: रेवोल्यूशन 2020:लव, करप्शन, एम्बिशन


पुस्तक : रेवोल्यूशन 2020 :लव, करप्शन, एम्बिशन
लेखक : चेतन भगत
भाषा : इंग्लिश
प्रकाशक : रूपा एंड कंपनी
पृष्ठ : 296
मूल्य : 140


महज कुछ अंकों का उतार-चढाव किसी को जीवन भर के लिए लूजर तो किसी को हमेशा के लिए स्टार बना देता है. अंकों के आधार पर इंसान को तौलने की इस परंपरा का किसी की जिंदगी पर कितना असर पड़ सकता है इसी को चेतन भगत ने अपने नए उपन्यास (Revolution2020) का केन्द्रीय विषय बनाया है.

क्या है 'रेवोल्यूशन 2020'

बनारस के एक कॉन्वेंट स्कूल में पढने वाले तीन गहरे दोस्त (गोपाल, राघव, आरती) अपने जीवन को ठीक उसी तरह जी रहे होते हैं जैसे इस उम्र में सभी जीते हैं. जमकर मौज-मस्ती, खेल-खिलवाड़ और साथ में पढाई. अचानक एक दिन उनमे से एक (गोपाल) को इस बात का एहसास होता है कि जिस राघव को उसने कभी गंभीरता से नहीं लिया आज वही राघव उससे बहुत आगे निकल चुका है. ठीक एक दिन पहले तक दोनों बिल्कुल एक जैसे लगते थे लेकिन सिर्फ एक रिजल्ट ने राघव को 'स्टार' और गोपाल को 'स्पॉट बॉय' बना दिया.

राघव को किसी सहारे की जरुरत नहीं थी. उसका अपना एक पूरा परिवार था, लेकिन गोपाल हमेशा अधूरा रहा. कहते हैं पिता की कमी को तो शायद भरा जा सकता है लेकिन मां की कमी को कोई नहीं भर सकता. शायद इसी ममता की कमी ने उसे आरती का दीवाना बना दिया.

जो चीज उसे अपनी मां से मिलनी चाहिए थी उसे वह आरती में तलाश रहा था लेकिन इस बात का एहसास न तो आरती को था और न ही राघव को क्योंकि, इन दोनों के जीवन में 'रिक्तता' , 'अभाव' या 'कमी' के लिए कोई जगह नहीं थी. गोपाल का जीवन मां के वात्सल्य से लेकर पिता के इलाज के लिए पैसों की कमी से जूझ रहा था.

पैसे और परिस्थितियां संबंधों को निर्धारित भले ही न करते हों लेकिन उसे प्रभावित जरुर करते हैं. जबकि इंसान की परिस्थिति को निर्धारित करने में पैसे की भूमिका हमेशा ही अहम होती है.

एक 'ट्विस्ट' जो बदल देता है गोपाल का जीवन

आरती अपना तन और मन गोपाल को सौंप देती है लेकिन, फिर भी उसे तब तक अपनाने से डरती है जब तक कि वो भी बड़ा आदमी नहीं बन जाता. गरीब और अनाथ गोपाल जो 5000 रूपए की नौकरी के लिए खाक छान रहा होता है अचानक एक दिन एक यूनिवर्सिटी का डायरेक्टर बन जाता है.

चेतन भगत ने गोपाल के जरिए तेजी से उभर रहे निजी शिक्षण संस्थाओं की असलियत को खोलने का प्रयास किया है. हालांकि ये सब चल रहा है इसका अंदाजा हम सबको है.

भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद पर खबरिया चैनलों पर होने वाली ब्रेक से भरपूर बहस की झलकी सुनने से अच्छा है कि इस उपन्यास को पढ़ा जाए. अब अगर इस उपन्यास पर किसी खबरिया चैनल पर बहस हो तो उसकी हेडलाइन शायद ये भी हो सकती है ' खबरिया चैनलों से चेतन भगत की टक्कर!'