Monday 23 November 2009

अपना घर

आज जब मै एक हफ्ते की छुट्टी के बाद दिल्ली आया तो अजीब सा लगा । पता नही क्यूँ , अबकी बार घर से आने का मन नही हो रहा था। घर एक ऐसी जगह जहाँ आप सिर्फ़ वो होते हैं जो आप हैं। वहां कुछ भी साबित करना नही होता। वहां सिर्फ़ एक चीज होती है, प्यार.... अपनापन... । व्यक्ति को इससे ज्यादा और क्या चाहिए। हम अपने जीवन में जो कुछ भी करते है उसका अन्तिम उद्देश्य यही प्यार और अपनापन पाना ही तो होता है ।

हम जीवन में सफल होना चाहते हैं , क्यूँ? क्यूंकि हमारी सफलता से हम अपने अपनों को खुश करना चाहते हैं। अक्सर सोचता हूँ , आख़िर क्यूँ इस कदर भाग रहा हूँ? क्या होगा उस सफलता का जो अपनों को खो कर मिले? ऐसी सफलता जो आपको अपनों से ही दूर कर दे, आपको वो करने के लिए मजबूर करे जो आप करना नही चाहते, आपको वहाँ रहने के लिए बेबस करे जहा आप ठहरना नही चाहते । ऐसे लोगो के बीच रहना पड़े जिन्हें आप पसंद नही करते , जो आपको पसंद नही करते।

जीवन का आनंद जिनके बीच है , उन्हें छोड़कर क्या सिर्फ़ पैसे और सफलता के लिए जीवन को कष्टमय बना देना ही संघर्ष है ? पिछले एक हफ्ते में मैंने महसूस किया कि जीवन कम पैसो से तो चल सकता है, लेकिन प्यार और अपनों की कमी जीवन को नीरस बना देती है ।

आज ना जाने क्यूँ ये लगता है कि जीवन जीने के लिए और किसी भी चीज से ज्यादा जरुरत अपनों के साथ की है। वो अपने जो आपको पसंद करते हैं। इसलिए नही कि आप ज्यादा पैसे कमा सकते हैं, बल्कि इसलिए कि आप उनके लिए कीमती हैं । आप उन्हें चाहते हैं । वो आपको चाहते हैं । यही चाहत जीवन कि उर्जा है ।

घर क़ी एक कप चाय किसी भी आलिशान रेश्त्रां की महँगी coffee से ज्यादा उर्जा देती है। इस उर्जा को पाने के लिए क्या लखपति होना जरुरी है ? लखपति, करोडपति बनने के लिए हम सब भाग रहे हैं । जब वो मिल जाता है, तो क्या वो रह जाते हैं , जिनके लिए हम ये पाना चाहते थे ?

संजीव श्रीवास्तव