Wednesday 23 December 2009

पुस्तक समीक्षा



पुस्तक : नेमसेक

लेखिका : झुम्पा लाहिड़ी

पृष्ट : २९१

मूल्य: ३९५ रूपए

सफलता के उच्चतम शिखर पर पहुच कर अपने नाम का झंडा गाड़ने के लिए कुछ लोग किसी भी बंधन की परवाह नहीं करते। परिवार हो ,समाज हो या राष्ट्र इन सब के बंधन को तोड़ते हुए वो दौड़ते ही जाते हैं। अंत में जब शिखर पर पहुचते हैं, तो उनके पास तो कोई उनकी खुशियों को बांटने वाला होता है और ही कोई उनके अकेलेपन को साझा करने वाला। नेमसेक ऐसे ही सपनो की दुनिया में खोये एक परिवार के दो पीढ़ियों की कहानी है।

एक नवजवान मेधावी बंगाली युवा(अशोक गांगुली) अपने सपनों की दुनिया बसाने अमरीका जाता हैं। साथ वो अपनी पतनी (आशिमा) को भी उस अनजान दुनिया में ले आता है। भारतीय संसकारों में पली-बढ़ी वो नारी एकाएक अपनेआप को पश्चिम की अनजान दुनिया में अकेली पाती है। लेकिन संस्कारों की खुराक उसे अनजान दुनिया में ही अपना शहर बसाने की ताकत देती है।

सपने तो पूरे होते हैं, लेकिन उसके बदले में जड़ो से टूटने का दुःख समय बीतने के साथ बढ़ता ही जाता है। अमरीका के विकसित और व्यवस्थित अस्पताल में उनके शिशु का जन्म होता है। जिसके जन्म पर यहाँ सोहर के गीत गाए जाते,वहां उनके आसपास कोई एक भी ऐसा नहीं होता, जिसके साथ वो अपनी इस खुसी को बाँट सकें।

संस्कारों की सीख किताबों से नहीं, बल्कि उस समाज से मिलती है, जहाँ हम-आप रहते हैं। अशोक और आशिमा भले ही विदेश में रहने लगे ,लेकिन उनके संस्कारों की जड़ें अभी भी हजारों मील दूर भारत में गड़ी हुइ थी। लेकिन विदेश में जन्मे उनके बच्चों के लिए यही संस्कार कभी पहेली तो कभी बोझ बन जाते हैं

सपनो की दुनिया बसाते-बसाते इंसान कई बार इतना आगे निकल जाता है की वो चाह कर भी वापस नहीं सकता। जब अपने बच्चे ही अजनबी लगने लगें, और उनके संस्कार माँ-बाप के लिए ही अजनबी बन जाएँ तो ऐसे में क्या रास्ता बचा रह जाता है? यही और ऐसे ही सवालों की गुत्थी का पिटारा है नेमसेक

भाषा सिर्फ उपन्यासकार का ही नहीं , बल्कि उपन्यास की विषयवस्तु का भी प्रतिनिधित्व करती है। कई बार पृष्ठभूमि का अतिशय वर्णन विषय को सिर्फ बोझिल बना देता है, बल्कि उब भी पैदा करता है। ऐसे कई मौके उपन्यासकार के पास थे जहाँ यदि वो चाहता तो प्रसंग को उत्तेजना बढ़ाने वाला बना सकता था , लेकिन ऐसा कर के लेखक ने अपने संस्कारों का भी परिचय दे दिया है, जो काबिले तारीफ है।

एक ही चीज है जो दुनिया में सबको बराबर मिलती है, और वो है समय, अगर वो एक बार निकल गया, तो फिर वापस नहीं आता। संबंधों में इस तत्व की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण हो सकती है, ये समझाने की इस उपन्यास में एक दिल छू लेने वाली कोशिश की गई है। रिश्तों की समझ और उनकी नियति भी मिटटी के रंग के साथ बदल जाती है,ये जान कर आश्चर्य होता है।


संजीव श्रीवास्तव