Wednesday 29 August 2018

दोनों के बीच झगड़ा तो आम बात थी

पिछले डेढ़ सालों में बहुत कुछ हुआ। जय और नेहा के बीच।

दोनों के बीच झगड़ा तो आम बात हो गई थी। महीने के 15 दिन तो मुंह फुलाकर और बिना किसी बातचीत के ही बीतते। अक्सर बहुत छोटी-छोटी बात पर दोनों की बातचीत बंद हो जाती।

एक दिन तो जय सिर्फ इस बात पर गुस्सा हो गया कि नेहा ने उसके साथ चाय पीने जाने से मना कर दिया। उसने कई दिन तक नेहा से बात नहीं की।

जय का न बोलना नेहा को परेशान करता था लेकिन, वो कभी कहती न थी। हां, जय को मनाने की कोशिश वो जरूर करती।

आखिर, नेहा की किसी न किसी बात पर जय हंस पड़ता और दोनों की फिर से दोस्ती हो जाती।

बच्चों की तरह दोनों का रूठना-मनाना यूं ही चलता रहा और वक़्त गुजरता रहा।

इंसान ने अपने इर्द-गिर्द लोक-लाज, तहज़ीब, शर्म-हया, रिश्ते-नाते, पद-प्रतिष्ठा की ऐसी दीवारें खड़ी कर ली हैं जिनमें दरवाज़ा तो दूर, खिड़की बनाने की सोच भी उसे अपराधबोध से भर देती है।

शायद, ये अपराधबोध ही जय और नेहा के बीच एक कॉमन चीज है। पिछले डेढ़ सालों में इस अपराधबोध ने कई बार दोनों को दूर भी किया और पास आने को मजबूर भी।

कई पीढ़ियों ने सदियों से चले आ रहे जिस रिवाज़ के आगे मुंह तक नहीं खोला उसे दो इंसान चुनौती दे दें.... क्या इतनी हिम्मत करना ही किसी लड़की के मर्दानी होने का सबूत नहीं है। एक प्यारी सी लड़की के इस फौलादी इरादे ने ही जय को नेहा का मुरीद बना दिया है।

अब दोनों का मिलना-जुलना ना के बराबर रह गया है। इंसानी रिश्तों को रीति-रिवाज़ों की चुनौतियां मिलना कोई नई बात नहीं है।

जय उससे मिलना चाहता है लेकिन, नेहा टालने की हर कोशिश करती है।
फिर भी जय को अगली मुलाकात का इंतज़ार है...

...उस एक डर के चलते खुद को व्यक्त नहीं होने देती मैं

प्रोफेसर की स्पीच सुनने के बाद उसने बस इतना ही कहा- क्या जरूरी है कि कंटेंप्रेरी वुमन ऐसी ही होनी चाहिए जो मर्दाें की तरह जिंदगी जीना चाहे? यानि वो सबकुछ जो मर्द कर सकते हैं या करते हैं वही सबकुछ एक औरत भी करना चाहती है। तुम्हारे प्रोफेसर के हिसाब से कंटेंप्रेरी वुमन की ये परिभाषा हो सकती है लेकिन, मुझे लगता है कि अपनी परंपराओं से जुड़ी हुई लड़की भी कंटेंप्रेरी हो सकती है।
जय ये सब ध्यान से सुन रहा था और देखना चाहता था कि नेहा इस मसले पर किस तरह रिएक्ट करती है। असल में नेहा को प्रोफेसर के पास ले जाने का उसका मकसद भी यही था। नेहा ने भले ही प्रोफेसर की बात से सहमति नहीं जताई लेकिन, कुछ बातों पर वो सहमत भी थी। उसने माना कि महिलाओं को किसी बात के लिए मनाना या कनविंस करना बहुत मुश्किल होता है जबकि, मर्दाें के साथ ऐसा नहीं है।
नेहा ने अपनी बात के पक्ष में तर्क रखते हुए कहा- औरतों को हर एक बात याद रहती है। वो कोई बात भुलती नहीं। बात कितनी भी पुरानी क्यों न हो समय आने पर वो उसे सुना ही देती हैं। यानि एक बार कोई बात अगर उनके दिमाग में घुस गई तो वो उसे भुला नहीं पातीं।
शायद नेहा ये कहना चाहती थी कि ऐसी कोई भी बात जो औरतों की भावनाओं को छू जाए या उन्हें हर्ट कर जाए वो उसे कभी भुला नहीं पातीं। भले ही कुछ समय के लिए वो उसे दबा लें।
असल में इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर ने हाल ही में एक नॉवेल लिखी थी जिसे ऑक्सफोर्ड प्रेस ने प्रकाशित किया था। अंग्रेजी में लिखी अपनी किताब के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा कि समकालीन औरत यानी कंटेंप्रेरी वुमन का व्यक्तित्व बहुत कुछ मर्द से ही मिलता-जुलता होता है।
प्रोफेसर की इसी बात पर नेहा को आपत्ति थी। जय जानना चाहता था कि आखिर नेहा को इस बात से परेशानी क्यों है कि एक औरत भी मर्द की ही तरह जिंदगी जीना चाहती है। वो सब करना चाहती है जो एक मर्द करता है।
उसने नेहा को कुरेदते हुए कहा- अच्छा तुम्हें नहीं लगता कि लड़कियों को लाड़-दुलार किया जाना बहुत पसंद आता है?
नेहा- हां, लेकिन तुम उसे लाड़-दुलार नहीं कह सकते। असल में उन्हें लोगों का अटेंशन पसंद होता है। वो चाहती हैं कि लोग उसे देखें, उसके बारे में बात करें, उसकी तारीफ करें...
जय- लेकिन तुम्हें नहीं लगता कि औरतों, लड़कियों या कंटेंप्रेरी वुमन के बारे में प्रोफेसर के विचार असल में एकतरफा हैं क्योंकि, किसी औरत या उसके व्यक्तित्व का सबसे सही आकलन खुद एक औरत ही कर सकती है? आखिर कोई मर्द ये दावा कैसे कर सकता है कि वो औरत या कंटेंप्रेरी वुमन को समझता है और वो ऐसी ही होती है जैसा प्रोफेसर साहब बता रहे हैं?
नेहा इस बात को गौर से सुन रही थी और ये समझने की भी कोशिश कर रही थी कि आखिर जय इस बात पर इतना जोर क्यों दे रहा है। क्योंकि अक्सर बातचीत में जय ये बात कह चुका था कि लड़कियों को अपनी बात खुद कहनी चाहिए। अपनी फीलिंग्स और तजुर्बे को दुनिया के सामने रखना चाहिए ताकि लोग ये समझ सकें कि औरत चीजों को किस तरह से देखती है। हालांकि, जय के लाख कहने के बावजूद नेहा उसकी बात टाल ही देती।
आज इसी बहाने नेहा की इस झिझक को वो तोड़ने की एक बार फिर से कोशिश कर रहा था। अपनी बात जारी रखते हुए उसने कहा- अब तुम अपनी ही बात ले लो। मेरे लाख पूछने के बावजूद कुछ सवालों का जवाब तुम कभी नहीं देती। आखिर लड़कियों का कैरेक्टर इतना कॉम्प्लीकेटेड क्यों होता है? आखिर क्यों तुम अपनी भावनाओं को व्यक्त नहीं करती...
नेहा- औरों के बारे में मुझे नहीं पता लेकिन, अपने बारे में मैं ये कह सकती हूं कि मैं दूसरों को अपनी बात ठीक से समझा नहीं पाती... बस इस उलझन के चलते मैं चुप रहना ही बेहतर समझती हूं।
इस जवाब के बावजूद जय को लगा कि नेहा वो बात नहीं कह पा रही है जो वो कहना चाहती है। उसने दूसरे ढंग से वही सवाल दोहराया- लेकिन जब तक तुम कहोगी नहीं तो ये पता कैसे चलेगा कि तुमने सही कहा या गलत?
नेहा- पता नहीं लेकिन मुझे डर लगता है।
नेहा के इस जवाब ने जय को चौंका दिया। वो समझ नहीं पाया कि आखिर इस डर का क्या मतलब है। नेहा के इस जवाब ने जय को सोच में भी डाल दिया। वो ये जानने के लिए बेचैन हो गया कि आखिर कौन सा डर है जो नेहा जैसी पढ़ी-लिखी और सेल्फडिपेंडेंट लड़की को खुद को व्यक्त करने से रोकता है।
अपनी बेचैनी को संभालते हुए उसने खुद को संयत किया फिर हल्के अंदाज में उसने नेहा से पूछा- ये किस तरह का डर है जो तुम्हें अपनी फीलिंग शेयर करने से रोकता है?
जय के इस सवाल को सुन नेहा मुस्कुरा दी लेकिन, उसने कोई जवाब नहीं दिया। जय ने कई बार पूछने की कोशिश की।
उस पूरी रात जय इस बात को लेकर परेशान रहा कि आखिर नेहा को किस बात से डर लगता है। क्या वो इस बात से डरती है कि जय उसकी भावनाओं से खेल सकता है? या शायद नेहा को डर है कि जय उसके बारे में ऐसा-वैसा न सोच ले? या शायद ये कि आखिर जय भी तो एक मर्द ही है... वो ये कैसे मान ले कि जय उन मर्दाें से अलग है जो औरत को सिर्फ एक शरीर मानते हैं...

मंज़िल पर पहुंचने वाले भी तो सफर के बारे में यही कहते हैं...

⁠⁠⁠बारिश के बाद की धूप जितनी साफ होती है उतनी ही तीखी भी लगती है। तीन-चार दिन से लगातार हो रही बरसात के बाद आज निकली तेज धूप ने एक झटके में ही फिर से गर्मी के साथ उमस पैदा कर दी। आसमान में बादलों के झुंड इधर-उधर घुमड़ने से बाज नहीं आ रहे थे लेकिन, सूरज भी आज हार मारने के मूड में नहीं था।
जय और श्रेय खाना खा कर कमरे में आए ही थे कि जय ने चाय पीने की इच्छा जाहिर की। धूप की हालत देखकर श्रेय ने साफ इनकार कर दिया।
जय फिर भी माना नहीं। उसने श्रेय की कमीज उठाकर उसके मूंह पर फेंकते हुए कहा- अबे, मर नहीं जाएगा धूप खाके तू। वैसे तो बड़ा गांव वाला बताता फिरता है सबको, अब क्या हुआ... घुस गई तेरी गंवई...
शर्ट का बटन बंद करते हुए श्रेय ने कहा- देख साले, मुझे पता है तू मानेगा नहीं बिना चाय पीये... मैं चल तो रहा हूं तेरे साथ लेकिन चाय नहीं पियूंगा, सिगरेट पिलाएगा तो बता?
जय- हां, चल पी लेना सिगरेट।
जय जिस भी इलाके में रहा वहां उसकी एक फिक्स चाय की दुकान जरूर होती थी। इसलिए इलाका छोड़ने के बाद उसे कोई और पहचाने या नहीं, चाय वाले शायद ही उसे भूल पाते होंगे। एक चाय वाले को तो उससे इतना लगाव हो गया कि मोहल्ला छोड़ने के बाद कई महीनों तक फोन करके जय से हाल-चाल पूछता था।
अपनी आदत के मुताबिक यहां भी उसने ऐसी ही एक दुकान ढूंढ ली थी। हां, ये अलग बात थी कि वो इस इलाके की सबसे घटिया चाय पिलाता था। असल में, जय को चाय के टेस्ट से ज्याद इस बात में दिलचस्पी होती कि दुकान में आराम से बैठने और कुछ घंटे गप्प करने की सुविधा है या नहीं। इस लिहाज से भाटिया टी स्टाॅल उसके लिए सबसे मुफीद जगह थी।
जय को आता देख दुकान के मालिक ने दूर से ही आवाज लगाई- अरे सर, आज इस टाइम कैसे आना हुआ। छुट्टी है क्या?
जय- अरे नहीं, भाटिया जी। छुट्टी तो नहीं है लेकिन आज गया नहीं काम पर... और सुनाइए, सब खैरियत तो?
भाटिया- माता रानी का आशीर्वाद है सर। दो चाय दूं?
जय- अरे नहीं, चाय तो मुझे पिलाइये। ये साहब तो सिगरेट लेंगे।
ये कहते हुए जय और श्रेय दुकान के अंदर चले गए। भाटिया की दुकान मोहल्ले के सबसे व्यस्त सड़क पर तिराहे के ठीक सामने थी। इस वजह से यहां हर समय चहल-पहल बनी रहती। जय ने चाय का प्याला लिया और अंदर लगी स्टूल पर बैठ गया। श्रेय खड़े-खड़े सिगरेट के कश मारता रहा और सड़क से गुजर रहे खूबसूरत चेहरों के साथ नजरों की वर्जिश करने लगा।
सिगरेट का कश छोड़ते हुए उसने कहा- जय... तुझे नहीं लगता चाय की दुकान के साथ अगर भाटिया जी गोल-गप्पे खिलाने लगें तो इनके यहां चाय पीने वालों की संख्या बढ़ जाएगी और इनकी आमदनी भी?
ये सुनते ही भाटिया हंस पड़ा। बोला- अरे भाई साब, कहां लफड़ों में फंसा रहे हैं... चाय से इतना मिल जाता है कि घर-परिवार आराम से चल जाता है। पांव पसारने के साथ परेशानी भी तो बढ़ती है सर, वो कौन झेलेगा।
श्रेय- हां, वो तो है भाटिया जी। वैसे भी परेशानी बढ़ाने से मिलता ही क्या है जिंदगी में... है के नहीं?
भाटिया- बिल्कुल भाई साब।
इन दोनों की बातचीत से बेखबर जय अपने मोबाइल में लगा हुआ था। श्रेय ने उसे आवाज लगाते हुए पूछा- क्या भाई साब, चलें अब... कि यहीं पूरा दिन बिताने का इरादा है।
जय ने कोई जवाब नहीं दिया। हाथ से इशारा करते हुए पांच मिनट रुकने को बोला। तब तक श्रेय उसके पास पहुंच गया और पालथी मार कर जय के बगल में बैठ गया।
दोपहर होने की वजह से चाय की दुकान पर इन दोनों के अलावा कोई और कस्टमर नहीं था। भाटिया भी अपनी कुर्सी पर बैठा ऊंघ रहा था।
श्रेय ने जय से पूछा- यार देख तेरे पास न तो प्रेमिका है और न पत्नी लेकिन, मेरे पास कम से कम एक चीज तो है और मुझे उसका ख्याल रखना पड़ता है। शादी जो की है। तो, मैं तो चला अपने घर.... तू रह अपनी इस चाय और भाटिया की दुनिया में।
जय ने मोबाइल बंद किया और श्रेय की ओर देखते हुए बोला- देख भाई, तू दुनिया का पहला मर्द तो है नहीं जिसके पास पत्नी है। न ही मैं दुनिया का अकेला ऐसा इंसान जिसके पास प्रेमिका या पत्नी में से कोई नहीं है। हम दोनों में से अनोखा तो कोई नहीं है....ये तो तू मानेगा, बोल हां या ना?
श्रेय- हां, चल मान लिया फिर...
जय- रही बात मेरे पास क्या है क्या नहीं ये तूझे कैसे पता... जब तक मैं ढ़िढोरा न पीटूं, उसके साथ सेल्फी लेकर मोबाइल में सेव न करूं, या फेसबुक प्रोफाइल में ये न लिखूं कि ‘आई एम इन लव‘ तब तक तू या तेरे जैसे दुनियादार ये मानेंगे नहीं कि मेरी जिंदगी में भी प्यार है... क्योंकि प्यार की तो यही परिभाषा है तेरी?
श्रेय- अच्छा चल मान लिया कि ये मेरी परिभाषा है, तो तेरी क्या है भाई... ये भी बता दे तू।
जय- मेरी कोई परिभाषा नहीं है। बस इतना समझ कि इंतजार में जिंदगी गुजारने का अपना मजा है। आखिर में कम से कम ये अफसोस तो नहीं रहेगा कि कुछ दिन और सब्र कर लिया होता... वैसे भी मंज़िल पर पहुंचने वाले यही कहते हैं कि असली ख़ुशी तो सफर में ही है।
इतना कहते हुए जय उठा और भाटिया को पैसे देते हुए श्रेय से बोला- जल्दी चल, तेरी जिम्मेदारी तेरा इंतज़ार कर होगी...

यार बीवी ही तो है, प्रेमिका थोड़े ही है...

पिछले दो दिन से लगातार हो रही बारिश ने दिल्ली का मौसम खुशनुमा बना दिया था। भीषण गर्मी से मिली इस राहत का मजा लेने के लिए जय ने बालकनी में अपनी आराम कुर्सी और एक टेबल डाल दी थी। रात के लगभग ग्यारह बज रहे थे। कुर्सी पर लगभग लेटे हुए जय ने सामने पड़ी टेबल पर अपने दोनों पैर टिका रखे थे। बारिश बंद हो चुकी थी और धीरे-धीरे बह रही ठंडी हवा का मजा लेते हुए जय आसमान को निहार रहा था। तभी डोर बेल बज उठी।
कुर्सी से उठने का उसका बिल्कुल मन नहीं कर रहा था। घंटी बजाने वाले से वो कह देना चाहता था कि भाई अभी चले जाओ, अभी मैं किसी और दुनिया में खोया हुआ हूं। कम से कम कुछ घंटे तो वहां बिता लेने दो। मगर दिल की बात को कानों से थोड़े ही सुना जा सकता है। इस बीच तीन-चार बार डोर बेल बजाई जा चुकी थी।
जय ने लेटे-लेटे ही आवाज लगाई- आ रहा हूं भाई, इतनी घंटी भी मत बजाओ कि पड़ोसी की रात भी खराब हो जाए।
जय ने किसी तरह खुद को आराम कुर्सी से निकाला और दरवाजा खोलने पहुंच गया। दरवाजे के उस पार उसके परम मित्र श्रेय सिंह खड़े थे। दरवाजा खुलते ही श्रेय ने कहा- अबे मर गया था क्या? साला पिछले दस मिनट से घंटी बजाए जा रहा हूं, कोई सुनने वाला ही नहीं है जैसे...
ये बड़बड़ाते हुए श्रेय बालकनी में पहुंच गया और आराम कुर्सी पर पसर गया। जय दरवाजा लगा कर सीधे किचन में चला गया। दो गिलास और पानी की बोतल लेकर वो भी बालकनी में आ गया। टेबल पर सामान रख कर उसने कमरे में से एक कुर्सी खिंची और श्रेय के बगल में ही बैठ गया।
श्रेय- क्या भाई, सुना है आजकल बड़ी राइटिंग-वाइटिंग कर रहा है तू। साले टाइम पास के लिए और काम नहीं मिला तुझे।
श्रेय अपनी बात कहते-कहते थोड़ा सीधा होकर बैठ गया और टेबल पर रखे दोनों गिलास में पानी भरने लगा। एक गिलास जय को बढ़ाने के बाद उसने पानी पीया और जय की ओर देखने लगा।
जय ने पानी का गिलास वैसे ही वापस टेबल पर रख दिया और सिगरेट जलाने लगा। सुलगती हुई सिगरेट उसने श्रेय की ओर बढ़ा दी।
श्रेय ने सिगरेट का कश छोड़ते हुए कहा- खैर, छोड़ तू ये फालतू की बातें। तुझे एक खुशखबरी सुनाता हूं... मेरा प्रमोशन हो गया है और सैलरी भी डबल हो गई है मेरी।
ये सुन के जय ने कुछ खास रिएक्शन नहीं दिया तो श्रेय को बुरा लगा। उसने कहा- साले, जल गया ना। लेकिन तू घबरा मत, तेरा भी कुछ कराता हूं मैं।
इस बीच जय कुर्सी से उठ कर बालकनी में टहलने लगा। हल्की-हल्की बूंदा-बांदी फिर से शुरू हो गई थी। जय अभी नौकरी और इस तरह की बातचीत के बिल्कुल मूड में नहीं था। वो चाह रहा था कि श्रेय कुछ और बात करे लेकिन, उसे तो आज अपने प्रमोशन की खुशी के आगे कुछ सूझ ही नहीं रहा था।
अपनी खुशी में मदमस्त श्रेय आराम कुर्सी छोड़ खड़ा हो गया और जय के साथ टहलने लगा। कुछ मिनट तक दोनों सिगरेट के कश मारते रहे और सामने वाली छत पर खड़ी उन लड़कियों को देखते रहे जो हल्की-हल्की हो रही बारिश का मजा ले रही थीं।
इस बीच श्रेय ने जय के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा- यार, पता है तूझे... मैं आज भी मुखर्जी नगर वाले उस घर को मिस करता हूं जिसमें तू, मैं और अमित रहते थे। साला छोटे से उस घर में सिर्फ अमित कमाता था और हफ्ते के आखिर में पार्टी का खर्चा भी बेचारा वही उठाता था। और पार्टी भी क्या... किसी दिन मटर पनीर तो किसी दिन मुर्गे की शामत। साला आज सब कुछ होने के बावजूद उन रातों को भूल नहीं पाता। देख ना... आज भी अपने प्रमोशन की असली खुशी मुझे तभी मिली जब तूझे ये बात बताई।
श्रेय ने जय को रोकते हुए पूछा- तू नहीं मिस करता उन दिनों को?
जय ने जवाब देने की बजाए श्रेय से ही सवाल पूछ दिया- अच्छा चाय पियेगा तू... मेरा तो बहुत मन कर रह है?
श्रेय- हां, पी लूंगा। तेरे साथ रहने वाला कभी चाय पीने से बच सका है, जो मैं बच जाऊंगा।
दोनों किचन की ओर चल दिए। जय के फ्लैट में दो कमरे थे और दोनों के बीच छोटी सीे लाॅबी और उसके ठीक सामने किचन। किचन के दरवाजे के सामने ही श्रेय कुर्सी डाल कर बैठ गया। जय ने चाय चढ़ा दी और प्लेट में बिस्कुट निकालने लगा।
श्रेय ने शिकायती अंदाज में जय से कहा- इतनी रात में घर से निकला तो भी पत्नी ताना देने से बाज नहीं आई। कहने लगी, चल दिए अपनी असली प्रेमिका के पास...
इतना कहते हुए श्रेय का चेहरा गुस्से से लाल हो गया। उसने दांत पीसते हुए कहा- साला पत्नियों को पता नहीं क्या खुन्नस रहती है अगर आप अपने दोस्तों के साथ टाइम पास करो तो।
जय ने चाय की प्याली श्रेय को पकड़ाते हुए कहा- क्यों नहीं परेशानी होगी उसे... आखिर तेरी बीवी है। उसका हक बनता है तुझ पर... और तू है कि अपनी खुशी बांटने के लिए यहां चला आया।
श्रेय अब तक गंभीर हो चुका था। उसने चाय खत्म कर प्याला टेबल पर रखा और गहरी सांस लेते हुए कहा, हां, यार बीवी ही तो है... प्रेमिका थोड़े ही है वो मेरी...
ये सुनते ही जय को लगा जैसे किसी ने उसे जोर से धक्का दिया हो। उसके प्याले से चाय छलक कर जमीन पर जा गिरी। जब तक जय खुद को संभालता श्रेय जा चुका था...

अपनी मां को इतना परेशान क्यों करते हो तुम...

जय और नेहा लंच के लिए तैयार ही हो रहे थे कि तभी जय का फोन बज उठा। स्क्रीन पर ‘घर‘ लिखा हुआ था। जय ने घर के लैंड लाइन का फोन नंबर इसी नाम से सेव किया हुआ है। ऐसा कम ही होता है कि जय को इस वक्त घर से फोन आए क्योंकि, उसने घर वालों को बोल रखा है कि दिन में उसे तभी फोन किया जाए जब कुछ बहुत अर्जेंट या जरूरी हो।
जय ने फोन उठाया। उधर लाइन पर जय के कोई रिश्तेदार थे, जय ने जैसे ही हैलो किया उन्होंने कहा- तुम्हारे मां की तबियत ठीक नहीं है, कल से ही तुम्हें बुला रही हैं।
इतना सुनते ही जय फोन लेकर नेहा से थोड़ा दूर चला गया। उसने कहा- मां से बात कराइए मेरी।
मां के हैलो बोलते ही जय की आंख भर आई। आवाज सुनते ही वो समझ गया कि उनकी तबियत काफी खराब है, वो ठीक से बोल भी नहीं पा रहीं थीं। जय उन्हें नमस्ते भी नहीं बोल पाया। उधर से मां ने ही कहा- बेटा अगर आॅफिस में कोई परेशानी न हो तो एकाध दिन के लिए आ जा, तुझे देखने का बहुत मन कर रहा है।
इतना कह कर मां ने फोन फिर से जय के रिश्तेदारर को पकड़ा दिया। शायद उन्हें रोना आ गया। जय ने फोन पर कहा- मैं आज रात ही चल रहा हूं। सुबह तक आ जाऊंगा।
फोन काटते हुए उसने नेहा को इशारा करके खाने के लिए बुलाया। खाने की मेज पर जय कुछ न कुछ बोलता ही रहता है लेकिन, आज शांत था। नेहा को लगा कुछ गड़बड़ है। कुछ देर बाद उसने ही पूछा- क्या हुआ, घर पर सब ठीक तो है न?
जय खाते-खाते ही बोला- नहीं... मां की तबियत ठीक नहीं है। मुझे आज ही घर निकलना पडे़गा।
नेहा- ठीक है... निकल जाओ।
जय- अरे यार, तुम तो देख ही रही हो आजकल यहां क्या-क्या पंगे फैले हुए हैं।
नेहा- तो क्या हुआ, तुम्हारे न जाने से वो पंगे खतम थोड़े ही हो जाएंगे... अभी जो जरूरी है वो करो।
जय- हां, मैं आज शाम को ही निकलता हूं।
खाना खत्म करने के बाद जय ने कहा- यार एक सिगरेट पीने का मन कर रहा है... चलोगी तुम?
नेहा- हां, चलो.... वैसे भी मेरे मना करने से कहां मानने वाले हो तुम।
नेहा के इस तंज पर जय अक्सर कुछ न कुछ बोलता ही था लेकिन, आज उसका मन कुछ उखड़ा-उखड़ा सा था। वो चुपचाप चलता रहा। नेहा भी बिना कुछ बोले उसके साथ चली जा रही थी।
चाय की दुकान पर पहुंच कर उसने एक सिगरेट ली और सुलगा ही रहा था कि नेहा ने पूछा- तुम्हारी मां तुम्हें देख कर काफी परेशानी होती होंगी.... क्यों?
जय ने आसमान में देखते हुए सिगरेट के कश को ऊपर की ओर छोड़ा। उसने तुरंत जवाब नहीं दिया, कुछ रुक कर बोला- तुम्हें पता है... मैं अपनी मां का सबसे दुलारा बेटा हूं। पिछले आठ साल से मैं घर से बाहर हूं और अकेले ही जिंदगी जी रहा हूं। मेरी मां को लगता है अकेले रहने में बहुत परेशानी होती है, खाना-पीना ठीक से नहीं हो पाता। नौकरी से लेकर घर तक का सारा काम अकेले ही करना पड़ता है.... और न जाने क्या-क्या।
इतना कहने के बाद जय फिर कुछ देर शांत ही रहा। नेहा जय के बाईं ओर खड़ी थी और हवा भी उसी ओर बह रही थी। जय के हाथ में सुलग रही सिगरेट का धुंआ नेहा के चेहरे से होता उसके नाक में जा रहा था। तंग होते हुए उसने कहा- यार, खतम करो इसे और फेंको जल्दी से.... पता नहीं क्या मजा मिलता है इसमें।
जय ने नेहा को अपनी दायीं ओर आने का इशारा किया और खुद उससे थोड़ा दूर हो गया। वो धीरे-धीरे कश लेता रहा और कुछ सोचता रहा। इस चुप्पी को तोड़ते हुए नेहा ने सवाल किया- तो अपनी मां को इतना परेशान क्यों करते हो तुम.... शादी क्यों नहीं कर लेते?
जय ये बात सुनकर हंस दिया। जब उसने कोई जवाब नहीं दिया तो नेहा ने कहा- मैंने कुछ पूछा है तुमसे...
जय- तुम्हें पता है कि हमारे यहां शादियां कैसे होती हैं? बहुत सीधा सिस्टम है... लड़की वाले रिश्ता लेकर आते हैं या लड़के वालों को ही कहीं से पता चलता है। दोनों परिवारों में बातचीत होती है, फिर लड़का-लड़की एक-दूसरे को देखते हैं। कई बार ये पूरा प्राॅसेस दोहराया या तिहराया भी जाता है लेकिन, साल छह महीने के अंदर कहीं न कहीं बात फाइनल हो ही जाती है।
ये कहने के बाद जय रुक गया। उसने सिगरेट का आखिरी कश लिया और बाकी बचे हिस्से को जमीन पर डाल जूते से रगड़ दिया। इस बीच नेहा जय की ओर ऐसे देख रही थी जैसे वो कह रही हो कि अपनी बात पूरी कीजिए।
जय को हंसी आ गई। उसने बात जारी रखते हुए कहा- तुम अगर मुझे गौर से देखो तो ऐसी कोई खास कमी नहीं नजर आएगी मुझमें, जो बाहर से दिख जाए। शादी के समय तो यही देखा जाता है ना। पिछले कई साल से नौकरी में भी हूं और पढ़ा-लिखा भी ठीक-ठाक ही हूं.... अब बताओ, अगर मेरी शादी नहीं हो रही तो इसके लिए मैं कहां से जिम्मेदार हूं? और हां, इससे पहले कि तुम अपना एक्पर्ट कमेंट दो, एक बात और बता दूं... मैंने किसी से ये भी नहीं बोला है कि मैं शादी नहीं करुंगा। आई मीन... मैं स्ट्रेट हूं।
नेहा को जय की इस बात पर हंसी आ गई लेकिन, वो कुछ बोली नहीं। जय ने सिगरेट के पैसे दिए और दोनों वहां से चल दिए। कुछ दूर चलने के बाद जय ने कहा- यार, हम लोगों के यहां ये भी तो मान्यता है न... कि जोड़ियां तो भगवान बनाता है। फिर मेरी वाली कहां चली गई...
नेहा ने मुस्कुराते हुए कहा- हां, लेकिन भगवान जो भी करता है अच्छे के लिए ही करता है...
जय ने हंसते हुए कहा- हां, अब ये मानने के सिवा कोई दूसरा आॅप्शन भी तो नहंी बचता.... आखिरी डेस्टिनी भी तो कोई चीज है.... क्यों?
दोनों एक-दूसरे को देख कर मुस्कुरा दिए।

उस बारिश में भीगना... रह-रह कर सताता है

आज जय का मूड कुछ ठीक नहीं था इसलिए, शाम को उसने अपने एक दोस्त को घर बुलाया और साथ में बीयर की चार केन लाने को भी बोल दिया। शाम सात बजे से दस बजे तक दोनों ने बीयर पी और इधर-उधर की बातें करते रहे। दोस्त के जाने के बाद जय ने कमरे की लाइट आॅफ की और बिस्तर पर यूं ही लेट गया। कपड़े तक नहीं बदले।
लेटने के बाद उसे एहसास हुआ कि धीरे-धीरे नशा चढ़ रहा है लेकिन, नींद नहीं आ रही। रह-रह कर उसकी आंखों के सामने नेहा का चेहरा घूम जाता। जय ने अपना ध्यान कहीं और ले जाने की पूरी कोशिश की लेकिन वो नाकाम रहा। अपने मोबाइल में पड़ी कुछ क्लिप और घर की तस्वीरें देख कर उसने मन बहलाना चाहा लेकिन, उसे लगता जैसे हर तस्वीर में उसे नेहा ही दिखाई दे रही है। तभी अचानक घड़ी पर उसकी निगाह पड़ी, रात के सवा ग्यारह बज रहे थे।
उससे रहा नहीं गया, उसने नेहा को फोन लगा दिया। जय को पूरी उम्मीद थी कि नेहा फोन नहीं उठाएगी लेकिन, तीन रिंग के बाद ही फोन उठा गया। उधर से आवाज आई- क्या हुआ... इतनी रात में फोन क्यों किया?
जय का दिमाग बुरी तरह घूम रहा था। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि जवाब क्या दे। जय ने खुद को संभालते हुए कहा- बस यूं ही... तुम सोई नहीं अब तक?
नेहा- हां, बस सोने ही जा रही थी... तो क्या तुमने ये पूछने के लिए फोन किया है? देखो नाटक मत करो.... साफ-साफ बताओ, क्या बात है?
जय को समझ में नहीं आ रहा था कि वो कहे तो क्या कहे। नशे की वजह से उसका दिमाग भी उतनी तेजी से काम नहीं कर रहा था। कुछ सेकेंड चुप रहने के बाद उसने जवाब दिया- बस, मुझे नींद नहीं आ रही थी... तुमसे बात करने का मन किया इसलिए, लगा दिया।
इस दौरान जय को मौका मिल गया और उसने तुरंत बात पलटते हुए कहा- तुमने खाना खा लिया क्या?
नेहा- हां, खाना तो पौने नौ बजे ही खा लिया था। अब सोने जा रही हूं। मुझे भी थोड़ा काम था इसलिए देर हो गई।
तब तक नेहा को अचानक जैसे कुछ याद आ गया। उसने कहा- अच्छा सुनो, जिन तीन किताबों की सुबह तुम बात कर रहे थे, वो तीनों ही किताबें मेरी एक फ्रेंड ने पढ़ी हैं। उसने भी काफी तारीफ की है उनकी। मैंने आज ही आॅनलाइन उन तीनों किताबों का आॅर्डर दे दिया है।
जय ने बात आगे बढ़ाने के लिए बस यूं ही पूछ दिया- किस राइटर की बात कर रही हो तुम?
नेहा- अरे वही, अनिमेश त्रिपाठी।
ये सुनते ही जय हंस पड़ा। उसने फिर से पूछा- क्या नाम बताया तुमने...
तब तक नेहा समझ गई कि उसने नाम गलत बता दिया है। उसने कहा- हां, पता है नाम गलत बताया है मंैने... मुझे लगा तुम ठीक कर दोगे।
इस दौरान जय जोर-जोर से फोन पर हंसता रहा। उसकी हंसी सुन नेहा से भी रहा नहंी गया और वो भी हंस पड़ी। जय बार-बार उससे राइटर का नाम पूछता और हंसने लगता। कुछ देर तक दोनों फोन पर ही खूब हंसते रहे।
हंसते-हंसते जय के आंख से पानी बहने लगा। उसने नेहा से कहा- यार, तुम तो न.... मुंबई निकल जाओ। तुम्हें पता नहीं है कितना टैलेंट है तुम्हारे अंदर। तुम रातों-रात काॅमेडी किंग.... आई मीन, काॅमेडी क्वीन बन सकती हो।
नेहा ने अपनी हंसी रोकते हुए कहा- मैं जहां हूं ठीक हूं। मुझे काॅमेडी किंग या क्वीन नहीं बनना है, समझे तुम। बहुत हंस चुके तुम.... अब चुप हो जाओ।
जय की हंसी अभी भी नहंी रुक रही थी। उसने कहा- एक बार फिर से बताओ न... राइटर का नाम।
इतना कह के वो फिर जोर से हंस पड़ा। उसने नेहा से कहा- यार, तुमने तो दस मिनट में ही मेरा पूरा नशा उतार दिया।
उधर से नेहा कुछ बोली नहीं। अचानक कुछ सेकेंड के लिए दोनों चुप हो गए। जय भी अब सीरियस हो गया। गंभीर आवाज में उसने नेहा से पूछा- यार, एक दिन के लिए मैं तुम्हारे यहां आ जाउं क्या....
नेहा- क्यूं... यहां क्या है?
जय- बस, बहुत दिन से नदी किनारे बैठने का मन कर रहा है। सालों हो गए... जब से काॅलेज छूटा, ऐसा मौका मिला ही नहीं दोबारा। आजकल पता नहीं क्यूं फिर से वहां जा कर बैठने और लहरों को निहारने का मन कर रहा है।
इतना कहने के बाद जय शांत हो गया। नेहा ने भी कुछ नहीं कहा। चंद सेकेंड बाद जय ने ही नेहा से पूछा- तुम चलोगी तो अच्छा लगेगा... कुछ देर वहां बैठेंगे। बगल में ही एक चाय की दुकान है, उस इलाके का सबसे फेमस चाय वाला है वो। हिंदी के कई बड़े साहित्यकारों ने अपनी किताब में इस दुकान का जिक्र किया है। वहां चाय पीने का अलग ही मजा है। बोलो.... तुम चलोगी?
नेहा- नहीं, मेरे घर वाले आए हुए हैं। मैं उन्हें छोड़ के नहंी जा सकती।
जय- अरे, दो तीन घंटे की ही तो बात है... बता देना कुछ काम है। मैं कहां पूरा दिन तुम्हें अपने साथ रहने के लिए कह रहा हूं।
नेहा- नहीं, मैं नहंी जा पाउंगी। तुम अकेले क्यों नहीं चले जाते... और तुम मेरे साथ ही क्यों जाना चाहते हो?
नेहा पहले भी कई बार ये सवाल उठा चुकी थी। अक्सर जब भी जय उससे कहीं चलने को कहता तो वो ये सवाल खड़ा कर देती कि मैं ही क्यूं... तुम किसी और के साथ क्यों नहीं जाते?
शायद अगर नेहा सामने होती तो जय इस बात को इग्नोर कर देता लेकिन, फोन पर ये बात सुनकर उसे गुस्सा आ गया। उसने कहा- देखो, तुम बार-बार ये सवाल क्यों करती हो कि मैं तुम्हारे साथ ही क्यों जाना चाहता हूं। आखिर तुम सुनना क्या चाहती हो?
तुम्हें पता है उस इलाके में ही मेरे सबसे अजीज दोस्त का घर है। मैं जब भी वहां जाता वो मेरे साथ होता था। मुझे उसके साथ वक्त बिताना अच्छा लगता है। वो अब किसी दूसरे शहर में जाॅब करता है और अकेले वहां जाना मुझे अच्छा नहीं लगता।
जय की आवाज थोड़ा तेज हो गई थी। वो गुस्स में था। उसने कहा- मैं तुम्हारे साथ जाना चाहता हूं क्योंकि... तुम्हारे साथ जाना मुझे अच्छा लगता है। क्यों जरूरी है कि हर चीज को एक नाम दिया जाए? क्या नाम देने से ही किसी चीज के सही या गलत होने का फैसला होता है।
नेहा ये सब सुनती रही, लेकिन उसने कुछ जवाब नहीं दिया।
जय बोलता ही रहा। उसने गुस्से में कहा- आखिर, तुमने अपना दिमाग लगा ही दिया। इंसान दिमाग लगाने की अपनी आदत से बाज नहीं आता, कहीं भी...
जय की बात सुनकर नेहा को लगा कि वो गलत बोल गई थी। उसने दबी आवाज में भरे गले से कहा- मैंने कोई दिमाग नहीं लगाया है, मैंने भी दिल ही लगाया है... जिद क्यों पकड़ लेते हो तुम, मैंने कहा न... अभी नहीं आ सकूंगी मैं। जिंदगी खत्म हुई जा रही है क्या? फिर कभी भी तो चल सकते हैं हम...
जय ने को कोई जवाब नहीं दिया। वो नेहा से कहना चाहता था- इसी मौसम में पहली बार मैं वहां गया था। उस दिन दोपहर में ही आसमान को काले बादलों ने ढंक लिया था। नदी के उस पार से ठंडी-ठंडी हवा आ रही थी। कुछ देर में ही बारिश शुरू हो गई। किनारे बैठा देर तक मैं भीगता ही रहा था।
जय बताना चाहता था कि उस बारिश को वो बहुत मिस करता है। वो एक बार फिर से उसी बारिश में भीगना चाहता है... लेकिन उसने नेहा से बस इतना ही कहा- ठीक है, अगर तुम्हारा मन नहीं है तो कोई बात नहीं...

उसके स्माइली फेस पर आज गहरी गंभीरता थी

पिछले कुछ दिनों से जय और नेहा के बीच राहुल आ गया था। नेहा लगातार उसके किस्से सुनाए जा रही थी और जय उन्हें सुनता जा रहा था। उसने महसूस किया कि नेहा की रूह के किसी कोने में राहुल ठहर गया था। तमाम घटनाएं जिनका वो जिक्र कर रही थी, बीते काफी अरसा गुजर गया था... लेकिन जब वो ये सब सुनाती तो लगता जैसे वो आज भी उन्हें जी रही है।
लेकिन आज सुबह से वो शांत थी। हमेशा खिले रहने वाले उसके स्माइली फेस पर आज गहरी गंभीरता पसरी हुई थी। जय ने समझ लिया कि कुछ तो गड़बड़ है। पता नहीं क्यूं लेकिन, जय को नेहा का ये अवतार अच्छा लग रहा था। वो नेहा की एक फोटो खींच लेना चाहता था। ताकि बाद में इसे दिखाते हुए कह सके- देखो, तुम्हारे इस रूप में जो आकर्षण है उसे दिखाने वाला कोई आइना अब तक नहीं बना है।
फिर भी जय ये जानना चाहता था कि नेहा के मन में आखिर चल क्या रहा है। उसकी चुप्पी तोड़ने के लिए जय ने एक सवाल उसकी ओर उछाल दिया- क्या जीवन में कुछ अधूरा रह जाने या उसके छूट जाने का अफसोस नहीं होना चाहिए? तुमने जेएनयू घूमने के दौरान राहुल से यही बात तो कही थी, ‘कुछ और हो न हो... हमें पढ़ाई तो अच्छी जगह से ही करनी चाहिए।‘ क्या तुम्हें इस बात का अफसोस नहीं है?
सवाल करने के बाद जय कुछ देर चुप रहा। वो जानना चाहता था कि नेहा इस बात से कितना सहमत है लेकिन, उसने कोई जवाब नहीं दिया। वो पहले की तरह ही शांत और गंभीर मुद्रा में अपनी जगह बैठी रही। उसके चेहरे के भाव तक नहीं बदले।
जय ने उसे और कुरेदने की कोशिश की- पता नहीं क्यों... लोग ये मानते हैं कि जो छूट गया, जो बीत गया उस पर अफसोस करना गलत है। जबकि सच तो ये है कि जिंदगी की असल सीख उस छूट जाने में ही छिपी हुई है। चलते-चलते अगर हम किसी गलत रास्ते पर आ गए हैं और सही रास्ता पीछे छूट गया है तो क्या हमें पीेछे नहीं जाना चाहिए। गतल रास्ते पर ही जिंदगी भर चलते रहने से तो अच्छा है कि हम थोड़ा पीछे चले जाएं और सही रास्ते को पकड़ लें।
अफसोस करने वाली बात नेहा को हजम नहीं हुई। राहुल ने जब इस बात पर ज्यादा जोर दिया तो नेहा अपनी कुर्सी से उठी और कमरे के कोने में रखे मनीप्लांट के पौधे के पास खड़ी हो उसकी पत्तियों से धूल साफ करने लगी और बोली- लेकिन, इसे अफसोस करना कैसे कह सकते हैं। जरूरी तो नहीं कि आप जिंदगी में जो कुछ सोचें वो सब आपके साथ हो ही जाए। कुछ न कुछ तो हर किसी की जिंदगी में होने से रह ही जाता है।
जय को अच्छा लगा कि नेहा इस बातचीत को आगे बढ़ाना चाहती है। जय अपनी जगह से उठा और एक कुर्सी ले जाकर नेहा के बगल में रख दी। नेहा को बैठने का इशारा कर वो खुद बगल में ही खड़ा हो गया।
नेहा कुर्सी पर बैठ गई तो जय ने कहा- हां, शब्दों का मेरा चुनाव गलत हो सकता है लेकिन, भाव ये है कि जब भी जिंदगी में चुनाव करने का वक्त आता है तो हम मजबूती से खड़े क्यों नहीं हो पाते? ऐसा तो नहीं था कि अगर तुम घरवालों का थोड़ा विरोध करती और थोड़ा सा धैर्य रखती तो तुम्हें वो नहीं मिलता जो तुम पाना चाहती थी।
नेहा इस बात का जवाब देना चाहती थी लेकिन, जय ने उसे रोकते हुए कहा- तुम अपनी बात कह लेना लेकिन, पहले मेरी बात पूरी हो जाने दो।
जय ने थोड़ा तेज आवाज में उत्तेजित होते हुए कहा- पता नहीं क्यूं... लेकिन मुझे ये लगता है कि तुम वो पा सकती थी और तुम्हारी जगह जिसे वो मिला, तुम उससे कहीं ज्यादा बेहतर उस मौके का इस्तेमाल कर सकती थी। हम मोटी फीस चुका कर किसी दोयम दर्जे के संस्थान में पढ़ना स्वीकार कर लेते हैं। मुझे समझ में नहीं आता कि इस तरह के समझौते लोग क्यूं कर लेते हैं। क्या ये हमारी कमजोरी नहीं है?
ये कहते-कहते जय थोड़ा भावुक सा हो गया। नेहा इस बात को समझ गई। उसने हंसते हुए कहा- अरे, तुम तो सेंटी हो गए। इतना टेंशन क्यूं ले लेते हो तुम? जिंदगी खत्म थोड़े ही हो गई है कि अब कुछ हो ही नहीं सकता।
नेहा की इस बात पर जय और भी भड़क गया। उसने गुस्से में कहा- बस... तुम लड़कियों की यही तो प्राॅब्लम है कि जब भी तुम्हारे साथ कुछ गलत होता है तो उसे या तो चुप होके सह लेती हो या आंसू बहा कर निकाल देती हो। उस गुस्से को पालती ही नहीं हो ताकि, वो आग बनके निकले और दूसरों को डरा दे। यही तो कारण है कि लड़कियों को हमेशा दबाया जा सका।
क्यों दुनिया के महान साइंटिस्ट से लेकर आर्टिस्ट या इनोवेशन के किसी भी फील्ड में महिलाओं का नाम रत्ती भर के बराबर है? क्योंकि इस जेंडर ने हमेशा अपनी भावनाओं को दबाने या छिपाने में ही अपनी बहादुरी समझी... कुछ व्यक्त होने ही नहीं दिया, उसे निकलने ही नहीं दिया कहीं।
अब तक जय का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच चुका था। चेहरा तमतमा रहा था और आखों से जैसे आग निकल रही थी। वो और भी बहुत कुछ बोलना चाहता था लेकिन, अचानक चुप हो गया।
नेहा अपनी कुर्सी से उठी और उसकी आंखों में आंख डाल कर देखने लगी। नेहा के चेहरे पर जिस गंभीरता को देख कर जय ने ये बातचीत शुरू की थी वो अब गायब हो चुकी थी। जय को देखकर नेहा मुस्कुरा रही थी... उसकी आंखें फिर से चमकनें लगी थीं।

पीले सलवार-सूट को बैन क्यों नहीं करती सरकार

कपड़े पहनने का नेहा का स्टाइल औरों से थोड़ा अलग है। हालांकि ज्यादातर मौकों पर राहुल ने उसे ट्रेडिशनल ड्रेस में ही देखा है। उसे सलवार कुर्ता पहनना शायद सबसे ज्यादा पसंद है। उस दिन उसने पीले रंग का काॅटन का सूट पहन रखा था। दुपट्टे का रंग भी पीला ही था। माथे पर हरे रंग की छोटी सी बिंदी भी लगा रखी थी।
पीले सूट में उसका गोरा रंग ऐसे चमक रहा था जैसे साफ उजले पानी की लहरों पर सूरज की रोशनी पड़ते ही उसकी चमक दोगुनी हो जाती है। उसे देखने के बाद कुछ देर तक तो राहुल को समझ में नहीं आया कि आखिर आज नेहा इतनी खुबसुरत क्यों लग रही है। उसका चेहरा ऐसे खिल रहा था जैसे उसमें से हजार वाट के कई बल्ब की रोशनी निकल रही हो। राहुल ये बात उससे कहना चाहता था लेकिन, समझ में नहीं आ रहा था कि वो कहे तो क्या कहे। पता नहीं ऐसा क्यूं होता है कि जब आप कुछ कहने के लिए सबसे ज्यादा बेताब होते हैं उसी वक्त शब्दों की सबसे ज्यादा कमी हो जाती है।
आते ही नेहा अपनी सीट पर गई और मोबाइल चेक करने लगी। राहुल लगातार उसे ही निहार रहा था। वो चीख-चीख कर कहना चाहता था कि आज दुनिया की हर खुबसूरत चीज तुम्हारे सामने फीकी पड़ गई है, लेकिन चाह कर भी वो ऐसा कह नहीं सका। उसके मुंह से बस इतना ही निकला- आखिर सरकार पीले रंग के सूट को बैन क्यों नहीं कर देती? खासतौर से गोरी चमड़ी वालों को तो इसे पहनने ही नहंी देना चाहिए।
अपने वाट्सऐप में व्यस्त नेहा को ये बात समझ में आई या नहीं कहना मुश्किल है लेकिन, उसने राहुल से बस यूं ही पूछ दियाा- क्यूं... पीले सूट से तुम्हें क्या परेशानी है?
राहुल- मुझे कोई परेशानी नहीं है लेकिन, किसी को भी परेशानी हो सकती है।
राहुल से सवाल करते हुए नेहा की आखें ऐस चमकी रहीं थीं, जैसे वो कुछ कह देना चाहती हैं। उसके होंठ भी हिल रहे थे लेकिन, वहां से कोई शब्द नहीं निकल रहे थे। पता नहीं ये उसके आंखों और होठों की शैतानी थी या कुछ और लेकिन, राहुल इनके जादू में आज पूरी तरह कैद था।
राहुल का मन कर रहा था कि उसे कहीं घुमाने ले जाए लेकिन, उसे पता था कि ये नहीं हो सकता। फिर भी वो कुछ वक्त नेहा के साथ बिताना चाहता था। उसने चाय के लिए पूछा तो नेहा ने अनमने मन से जवाब दिया- अरे....ये कौन सा वक्त है चाय पीने का। ठीक है... तुम्हें पीनी है तो जाओ, मुझे कोई शौक नहीं है।
राहुल नेहा के नजदीक चला गया और धीमी आवाज में कहा- प्लीज, चलो ना.... दस मिनट में वापस आ जाएंगे।
नेहा अपने मोबाइल में लगी रही और बिना कुछ बोले इनकार करते हुए उसने गर्दन हिला दी। राहुल फिर भी नहीं माना और उसने नेहा के हाथ से मोबाइल छीनने की कोशिश की। दोनों में थोड़ी छीना-झपटी भी हुई। नेहा ने राहुल से अपना हाथ छुड़ाते हुए गुस्से में कहा- क्या है... कोई जबरदस्ती है क्या?
राहुल उसके और नजदीक चला गया। उसने फिर कहा- प्लीज चलो न... बस दस मिनट की तो बात है। फिर आ जाना और करती रहना दिन भर अपना काम।
अब तक नेहा समझ चुकी थी कि इनकार करने से कोई फायदा नहीं है। उसने कहा- अच्छा दस मिनट सब्र करो। मुझे एक मेल करने दो, फिर चलती हूं।
काम निपटाने के बाद नेहा ने गुस्से में राहुल को देखा और ताना मारने के अंदाज में बोली- चलिए, चाय पीने....नहीं तो आप बीमार पड़ जाएंगे अभी।
नेहा का गुस्सा देख राहुल को समझ में नहीं आ रहा था कि उससे क्या कहे और कैसे बात करे। इस सोच में कुछ दूर तक दोनों बिना कुछ बोले ही चलते रहे। आखिर राहुल ने ही चुप्पी तोड़ी और बोला- अच्छा तुम्हें क्या लगता है... लड़कियां इतना डरती क्यूं हैं लड़को पर भरोसा करने से?
नेहा- अब किसी के चेहरे पर तो लिखा नहीं होता कि वो क्या है और उसके दिमाग में क्या चल रहा है। और सच ये है कि लड़कियां समझ जाती हैं कि कोई उन्हें किस निगाह से देख रहा है या लड़की को टच करने का उसका मकसद क्या है?
राहुल को ये बात थोड़ी बुरी लगी लेकिन, वो जानना चाहता था कि नेहा के दिमाग में क्या चल रहा है। उसने बात आगे बढ़ाते हुए कहा- अच्छा, मैं एक बात कहूं।
नेहा- हां...
राहुल- क्या ऐसा नहीं होता कि जब हमें कोई बहुत प्यारा या अच्छा लगता है तो हम उसे चूम लेना चाहते हैं या उसे बांहों में भरना चाहते हैं। कई बार भावनाओं को सिर्फ शब्दों से बयां करना मुश्किल हो जाता है या शायद शब्दों की अपनी सीमा होती है इसलिए जब वो कम पड़ने लगते हैं तो इंसान की आंखों से आंसू छलक पड़ते हैं या सीने से लग जाने या लगा लेने का मन करता है?
नेहा- हां, हो सकता है... लेकिन इसका फैसला कैसे होगा कि किसी की भावना क्या है?
राहुल- अच्छा, एक चीज तुम्हें अजीब नहीं लगती कि पश्चिमी देशों में किसी से मिलते ही उसे गले लगाने और किस करने की प्रथा है। तुम्हें नहंी लगता कि अभिवादन का ये तरीका एक छटके में ही आपको ये एहसास करा देता है कि अगले की आपके प्रति क्या भावना है?
नेहा ने इस बात को थोड़ा गंभीरता से लिया। उसे लगा इस बात को आगे बढ़ाया जाना चाहिए- हां, हमारे यहां तो ठीक इसके उल्टा है। अगर आप नजदीकी रिश्ते में भी कुछ ज्यादा हंसी-ठिठोली करने लगे और थोड़ा नजदीक चले गए तो तुरंत ही डांट लग जाती है कि इतना चिपक-चिपक के बतियाने की क्या जरूरत थी उससे?
राहुल- तुम्हें नहीं लगता कि शायद इसी वजह से हमारी बहुत सी भावनाएं सही होते हुए भी व्यक्त नहंी हो पातीं और आगे चलकर वो गलत दिशा में चली जाती हैं?
नेहा थोड़ा सोच में पड़ गई। कुछ सोचने के बाद उसने कहा- हां, शायद ऐसा होता हो लेकिन ऐसा होगा ही ये कहना थोड़ा मुश्किल है...
राहुल- पता नहीं, लेकिन... इंसान अगर अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए शब्दों का कम इस्तेमाल करे तो शायद अविश्वास, डर और कुंठाओं से उसे मुक्त करना ज्यादा आसान होगा। शायद नैतिक शिक्षा की किताबें पढ़ाने की बजाए ये तरीका किसी को ज्यादा मानवीय बना सकता है।
नेहा- हां, शायद तुम्हारी बात सही हो सकती है लेकिन हर इंसान का मानसिक स्तर एक जैसा नहीं होता... और सच तो ये है कि इस मानसिकता को बदलने की ही ज्यादा जरूरत है।
जब नेहा ये बोल रही थी तो राहुल एक टक उसे देख रहा था। वो अब और भी खुबसुरत दिखने लगी थी... शायद इतनी खुबसुरत कि राहुल उसे शब्दों में बयां नहंी कर सकता था। उससे रहा नहीं गया और उसने नेहा के बाएं बाजू पर हल्के से दो मुक्के मारे और कहा- कभी-कभी तुम बहुत समझदारी की बात करने लगती हो। लेकिन जिस दिन पीला ड्रेस पहना करो उस दिन ऐसा मत किया करो, प्लीज....
इतना कहते-कहते राहुल ने फिर से नेहा के बाजू पर मुक्का मारने की कोशिश की। नेहा ने खुद को बचाते हुए कहा- बिहेव योर सेल्फ...

'मेट्रो तक का साथ'

आज सुबह से ही दिल्ली में खूब बारिश हो रही थी, इसलिए कम ही लोग काॅलेज आए थे। राहुल ने नजदीक ही रूम ले रखा था इसलिए बारिश शुरू होने से पहले ही वो काॅलेज पहुंच गया था। नेहा भी किसी तरह आ गई थी।
दिल्ली में कुछ देर की भी बारिश जी का जंजाल बन जाती है। हर चैराहे पर जाम और हर मोड़ पर वाटर लाॅगिंग आम बात है। काॅलेज के आॅफिस स्टाफ के लोगों के अलावा टीचर्स भी जाम में फंसे हुए थे। बारिश की वजह से बाहर मौसम ठंडा हो गया था जिसका असर क्लास रूम में भी था। एसी रोज की ही तरह चल रहा था, लेकिन क्लास रूम काफी ठंडा हो गया था। आते वक्त नेहा थोड़ी बहुत भीग गई थी तो उसे ठंड लगने लगी। उसने राहुल से कहा- यार, आज कुछ ज्यादा ही ठंडा नहीं कर रहा एसी? प्लीज इसे बंद करा दो ना।
राहुल- हां, ठंड तो मुझे भी लग रही है लेकिन अभी तो कोई दिख नहीं रहा जिससे बंद करने के लिए बोलूं। चलो हम लोग बाहर बालकनी में बैठते हैं। आज बाहर का मौसम भी अच्छा ही है।
दोनों क्लास रूम के बाहर बालकनी में आ गए और कुछ देर तक बिना बातचीत किए बारिश की बूंदों को देखते रहे। कुछ देर बाद राहुल ने कहा- यार, आज कहीं घूमने चलें। देख न मौसम कितना अच्छा है और आज तो क्लास भी चलने से रही। चल आज जामिया चलते हैं। मेरा असाइनमेंट भी पूरा हो जाएगा और तफरी भी हो जाएगी। क्या कहती हो?
नेहा- तुम हमेशा अपने काम के लिए मुझे यहां-वहां ले जाते रहते हो, मैं कब से कह रही हूं कि मुझे एक बार जेएनयू जाना है। हम वहां नहीं चल सकते आज?
राहुल- हां, चल सकते हैं। पहले जामिया चलते हैं, वहां कुछ देर का काम है। निपटा कर सीधे जेएनयू चल देंगे। शाम होने से पहले दोनों काम निपट जाएगा।
नेहा को प्लान पसंद आया। दोनों ने काॅलेज बंक करने का प्लान बनाया और आॅटो कर जामिया चल दिए। बारिश भले ही हुई थी लेकिन उमस की वजह से गर्मी में कोई कमी नहीं थी। कुछ दूर चलने के बाद ही राहुल को प्यास लग आई। उसने नेहा से पूछा- तुम्हारे पास पानी है क्या?
नेहा- नहीं।
राहुल- इतने बड़े-बड़े दो बैग लेकर चलती हो, एक बाॅटल पानी नहीं रख सकती इसमें।
नेहा- तुम भी इतना बड़ा बैग लेकर चलते हो, तुम नहीं रख सकते पानी? और मेरा बैग पहले से ही बहुत भारी है, इसमें और कोई सामान नहीं रख सकती मैं।
राहुल- आखिर रखती क्या हो तुम इस बैग में कि इतना भारी हो जाता है?
नेहा- तुम्हें हर बात बताना जरूरी नहीं है मेरे लिए। अपना काम करो तुम, समझे।
अब तक आॅटो डीएनडी फ्लाईओवर के पास पहुंच गई थी। इस रास्ते में महारानी बाग तक जाम लगना आम बात है। अगर आप एम्स तक जा रहे हैं तो पीक आॅवर में आश्रम तक जाम का सामना करना ही पड़ता है। नेहा-राहुल की आॅटो भी पिछले दस मिनट से महारानी बाग वाले कट पर जाम में फंसी हुई थी। गर्मी से दोनों का बंुरा हाल था। गर्मी में आते ही नेहा का गुलाबी चेहरा लाल हो जाता। पसीने की बूंदें उसे भले ही परेशान करती हों लेकिन, उसके चेहरे पर आई लालिमा उसे और भी आकर्षक बना देती। राहुल ने नेहा की नजर बचा के कई बार पसीने और गर्मी से लाल हो चुके उसके चेहरे को देखने की कोशिश की। लाल हो चुके उसके चेहरे पर उसकी बड़ी-बड़ी आंखें ऐसे चमकतीं जैसे उसके चेहरे को किसी ने सुर्ख लाल गुलाबों से ढंक दिया हो और आखों की जगह दो चमकते हुए मोती रख दिए हों।
राहुल अपनी दुनिया में खोया हुआ था तभी आॅटो वाले ने आवाज लगाई- भाई साब, झुलेना वाली रोड पर चलना है या मथुरा रोड पर ले लूं आॅटो?
राहुल अचानक जैसे नींद से जागा और बोला- नहीं... नहीं, झुलेना की ओर ले लो। जामिया मेन गेट पर पहुंच कर उन्होंने आॅटो छोड़ दिया और अपने काम में लग गए।
दो बजे के करीब काम खत्म होने के बाद दोनांे ने आॅटो किया और जेएनयू चल दिए। राहुल ने 24x7 ढाबे पर आॅटो रुकवाई और वहां से दोनों पैदल ही कावेरी हाॅस्टल की ओर चल दिए। बाहर की तुलना में जेएनयू कैंपस में गर्मी कुछ कम महसूस हो रही थी। चारों ओर हरियाली और पेड़-पौधों की वजह से कैंपस में घूमना वैसे भी अच्छा ही लगता है।
कुछ दूर चलने के बाद नेहा ने राहुल से कहा- पता है... और कुछ हो न हो लेकिन पढ़ाई हमेशा अच्छे काॅलेज से ही करनी चाहिए।
राहुल ने उसकी बात पर सहमति में सिर हिला दिया फिर कुछ दूर तक दोनों बिना कुछ बोले ही चलते रहे।
कावेरी हाॅस्टल के सामने पहुंचते ही राहुल सामने बने लाॅन में जाकर लेट गया। नेहा भी उससे कुछ दूरी पर जाकर बैठ गई। राहुल ने कहा- इतनी दूर क्यों बैठी हो, थोड़ा नजदीक भी आ सकती हो। मैं कुछ गलत नहीं करूंगा तुम्हारे साथ।
नेहा- मैं ठीक हूं... तुम अपना काम करो, ज्यादा बकवास करने की जरूरत नहीं है, समझे।
राहुल लेटे-लेटे नेहा को निहारता रहा। कुछ देर बाद नेहा ने ही पूछा- अच्छा, तुमने शादी के बारे में क्या सोचा है?
राहुल- सोचना क्या है? जो अच्छी लगेगी उससे कर लूंगा।
नेहा- तुम्हारे घर वाले दबाव नहीं डाल रहे तुम पर... शादी के लिए?
राहुल- हां, डाल तो रहे हैं लेकिन, पता नहीं कुछ तय हो नहीं पा रहा। वो तो कहते हैं अगर कोई पसंद है तो कर लो।
नेहा- हुम्म.....तो कोई पसंद है?
राहुल- अब क्या कहूं.... तुम्हे तो पता है कि हमारे यहां शादी का एक फुल प्रूफ सिस्टम है जिसमें आप एक भी स्टेप इधर-उधर नहीं कर सकते। लड़के की जाति, घर-बार, उम्र, नौकरी, आमदनी और शक्लो-सूरत के हिसाब से लड़की खोजी जाती है। मैच होने पर ही बात आगे बढती है।
नेहा- तो तुम क्या चाहते हो?
राहुल- मेरे चाहने से क्या होगा। यहंा तो प्यार होने नहीं दिया जाता, क्योंकि बचपन से ही बताया जाता है कि ये एक गुनाह है और ऐसा करने वालों को इज्जत-प्रतिष्ठा सहित रिश्ते-नातों से हाथ धोना पड़ता है। पहले तो डर के मारे कोई प्यार करता नहंी और अगर कर भी लेता है तो किसी से बताता नहीं। जब तक शादी के लिए घर वाले दबाव नहीं डालते चोरी-चुपके प्यार चलता रहता है और शादी तय होते ही लड़की कह देती है- मैं सिर्फ अपनी खुशी के लिए घर वालों को बदनाम नहीं कर सकती। फिर मेरी छोटी बहन भी तो है, उसका क्या होगा। हर राम कहानी का यही अंत होता है।
नेहा- तो तुम्हें क्या लगता है कि ऐसा सिर्फ लड़कों के साथ ही होता है?
राहुल- मैं ऐसा कहां कह रहा हूं। लड़कियों का भी यही हाल है। लड़की के रूप-रंग, उसकी पारिवारिक हैसियत के मुताबिक घर वाले जिस वर को चुनते हैं वो खुशी-खुशी उसे स्वीकार करती है। मां-बाप द्वारा चुने गए पति के घर को अपना संसार मानकर जीवन गुजार देती है, क्योंकि दुनिया का यही नियम है और दुनिया ऐसे ही चलती है। ये भी निश्चित कर दिया गया है कि शादी के बाद जीवन में प्यार की सारी संभावना खत्म हो जाएगी, क्योंकि पति को पत्नी से और पत्नी को पति के अलावा अब किसी और से प्यार हो ही नहीं सकता। और अगर होता है तो इससे बड़ा कोई पाप नहीं।
इतना बोलते-बोलते राहुल की आंखें लाल हो गईं। वो गुस्से में आ गया। तभी उसे महसूस हुआ कि वो कुछ ज्यादा ही बोल गया। वो एकदम से चुप हो गया और नेहा की ओर देखने लगा। उसने पाया कि नेहा तो अपने मोबाइल में उलझी हुई है और वाट्सऐप पर किसी के चैट का जवाब दे रही है। राहुल को नेहा का ये व्यवहार बुरा तो बहुत लगा लेकिन, बिना कुछ बोले वो फिर से लाॅन की घास पर लेट गया।
राहुल के चुप होने के चंद सेकेंड बाद नेहा ने अपना मोबाइल बंद करते हुए पूछा- तो.... अब क्या करोगे तुम? प्यार किया नहीं और सिस्टम वाली शादी तुम्हें पसंद नहीं। ऐसे तो अकेले ही रह जाओगे?
राहुल ने नेहा की आंखों में देखा और कुछ सोचने लगा। कुछ देर चुप रहने के बाद राहुल ने कहा- चलो, अब चलते हैं। कम से कम मेट्रो स्टेशन तक तो तुम साथ दोगी ही मेरा... आगे की जिंदगी के बारे में फिर कभी बात करेंगे...

न जाने क्यों अगले स्टेशन पर वो मेरा इंतजार करती रही...

राहुल को अपना असाइनमेंट दो दिन में जमा करना था। उसने नेहा से अपने साथ चलने की जिद की। नेहा ने साफ मना कर दिया। उसने कहा- असाइनमेंट तुम्हारा है, मैं क्यों जाउं तुम्हारे साथ।
असल में वो राहुल को इग्नोर करने की कोशिश कर रही थी लेकिन, वो लगातार नेहा से चलने की जिद कर रहा था। पता नहीं क्यों पर, कुछ सोचने के बाद नेहा ने हामी भर दी।
अगले दिन दोपहर में मेट्रो से जाने का फिक्स हुआ। वर्ल्ड फूड फेस्टिवल का आखिरी दिन होने के कारण दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम में उस दिन काफी भीड़ थी। नेहा को वहां का क्राउड पसंद आया। देश-विदेश से आए लोगों का जमघट और दुनिया भर के अजीबो-गरीब खान-पान, उनकी सजावट और खुशबू ने माहौल को किसी त्योहार सा बना दिया था। स्टेडियम में घुसते ही राहुल ने आयोजक से बात की और अपने काम में लग गया। नेहा उसके पीछे-पीेछे चलती रही। कई स्टाॅल से गुजरने के बाद राहुल ने नेहा से कहा कि जब वो किसी से बात कर रहा हो तो उसकी कुछ तस्वीरें खींच ले ताकि, असाइनमेंट में उनका इस्तेमाल किया जा सके।
यहां आते वक्त दोनों ने सोचा था कि घंटे दो घंटे में काम निपटा कर निकल जाएंगे लेकिन, काम के बीच कब पूरा दिन निकल गया पता ही नहीं चला।
पांच बजे के करीब नेहा ने राहुल को इशारे में बताया कि उसे देर हो रही है। राहुल को भी तभी एहसास हुआ कि शाम होने वाली है। उसने जल्दी-जल्दी काम निपटाया और छह बजे के करीब दोनों वहां से चल दिए। स्टेडियम से चंद कदमों की दूरी पर ही जवाहर लाल नेहरू मेट्रो स्टेशन है। दिन भर स्टेडियम के चक्कर लगाते हुए नेहा थक गई थी, उसे तेज प्यास लग रही थी। उसने राहुल से एक बोतल पानी खरीदने को कहा। पानी पीते हुए जैसे ही दोनों मेट्रो स्टेशन में पहुंचे, राहुल प्लेटपफाॅर्म के लिए जाने वाली सीढ़ियों पर बैठ गया। तब तक नेहा आगे निकल गई थी। उसने इशारा किया कि ट्रेन आ गई है जल्दी नीचे आओ। राहुल ने इशारे में ही नेहा से पांच मिनट रुक जाने को कहा। असल में राहुल भी चलते-चलते थक गया था। नेहा को घर जाने की जल्दी तो थी लेकिन, उसने ट्रेन छोड़ दी और आकर राहुल के बगल में बैठ गई।
नेहा- अब बैठो क्यों हो यहां, मुझे देर हो रही है।
राहुल- अरे बाबा, दस मिनट तो बैठ सकती हो ना। अब घर ही तो जाना है तुम्हें, ऐसी कौन सी ड्यूटी है जो लेट हो जाओगी।
नेहा ने कुछ जवाब नहीं दिया और चुपचाप बैठी रही। इस बीच कई ट्रेनें निकल जाने के बाद नेहा ने राहुल से कहा- देखो अगर अगली ट्रेन से तुम नहीं चले तो मैं निकल जाउंगी।
नेहा की बात को राहुल ने अनसुना कर दिया। ट्रेन आने पर जैसे ही नेहा चलने के लिए उठी, राहुल ने उसका बैग पकड़ लिया। नेहा ने बैग छुड़ाने की कोशिश की लेकिन राहुल ने उसे जाने नहीं दिया। नेहा को समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर राहुल ऐसा क्यों कर रहा है। बार-बार बैग पकड़ के रोकने और नेहा की जाने की जिद अगले दस-पंद्रह मिनट तक चलती रही। इस दौरान कई ट्रेनें निकल गईं। प्लेटफाॅर्म पर खड़े लोग भी अब इन दोनों की ओर देखने लगे थे। अब तक नेहा का पारा चढ़ चुका था। उसने गुस्से भरी आंख से राहुल की ओर देखा और कहा- देखो, अगर इस बार तुमने मुझे रोकने की कोशिश की तो मैं बैग यहीं छोड़ दूंगी।
नेहा के गुस्से को राहुल ने भांप लिया। उसने नेहा का बैग छोड़ दिया। इस बार मेट्रो का दरवाजा खुलते ही नेहा झट से चढ़ गई लेकिन, जब तक राहुल भीड़ को ढकेलता हुआ अंदर जाता दरवाजा बंद हो गया। ये देख कर नेहा को जोर की हंसी आ गई। उसने बंद होते दरवाजे के पीछे से राहुल को चिढ़ाते हुए बाय का इशारा किया। दरवाजा बंद हुआ और मेट्रो धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगी। नेहा की बोगी राहुल से दूर खिसकती हुई उसकी आंखों से ओझल हो गई।
राहुल कुछ मिनट तक प्लेटफाॅर्म पर गुमसुम सा खड़ा रहा। फिर अचानक जैसे उसे कुछ याद आया और उसने तुरंत जेब से मोबाइल निकाला और नेहा को फोन लगा दिया। फोन उठते ही उसने कहा- अगले स्टेशन पर उतर जाना, मैं पीछे वाली मेट्रो से आ रहा हूं।
उधर से नेहा ने कहा- ठीक है...
आमतौर पर एक से दूसरे मेट्रो स्टेशन की दूरी तीन से चार मिनट की होती है, लेकिन राहुल को ऐसा लगा जैसे जानबूझकर इन दो स्टेशनों की दूरी को आज अचानक बढ़ा कर कई घंटो का कर दिया गया है। अगले स्टेशन पर पहुंचते ही राहुल तेजी से बोगी से बाहर आया और चारों ओर देखने लगा। नेहा उसी बोगी के ठीक सामने खड़ी थी...

इस कैरेक्टर को समझने में उसे मजा आने लगा था

पिछले दो दिनों से जय की परेशानी बढ़ती ही जा रही थी, क्योंकि नेहा कुछ भी साफ-साफ नहीं कह रही थी। जय ने तय कर लिया कि आज वो जवाब लेकर ही मानेगा। दोनों दोपहर का खाना खा रहे थे कि तभी जय ने रोटी उठाते हुए जल्दी से कहा- खाने के बाद चाय पीने चल सकते हैं क्या?
नेहा खाने में व्यस्त थी। अचानक ये सवाल सुन उसे थोड़ा अजीब सा लगा लेकिन उसने कुछ जवाब नहीं दिया। वो खाने में लगी रही। इस दौरान जय की थाली में रोटियां खत्म हो गई थीं। उसने बिना पूछे नेहा की थाली में से एक रोटी उठा ली। नेहा ने गुस्से में उसकी ओर देखा और बोली- रोटी मांग भी सकते थे, मेरी थाली में से क्यों उठाई।
जय कुछ बोला नहीं, बस मुस्कुराते हुए रोटी खाता रहा। नेहा को भी हंसी आ गई। नेहा ने जय की ओर सब्जी का डब्बा बढ़ाते हुए कहा- बींस की सब्जी लाई हूं, चटपटी बनी है, चाहो तो टेस्ट कर सकते हो।
जय ने उसका टिफिन उठाया और पूरी सब्जी अपने प्लेट में उड़ेल ली। इससे पहले कि नेहा उसे रोकती टिफिन खाली हो चुका था। नेहा ने नाराज होने का सा चेहरा बनाया और बोली- तुम्हें कुछ समझ मंे भी आता है, अब मैं बाकी बची रोटी कैसे खाउंगी...सूखा?
जय- मुझे क्या पता कि तुम्हें और सब्जी चाहिए। अगर ऐसा था तो देते वक्त ही बता देती, फिर तुमने मुझे रोका क्यों नहीं।
नेहा- अच्छा, तो आपको अगर कोई कुछ आॅफर करे तो उसे पूरा चट कर जाइए। यही सीखा है आपने।
जय ने मुस्कुराते हुए कहा- क्या करू... गांव से हूं ना, शहर के तौर-तरीके सीखने में थोड़ा वक्त तो लगेगा ही।
जय की बात सुन नेहा को हंसी आ गई। अगले दो मिनट तक दोनों बिना कुछ बोले खाना खाते रहे। नेहा ने निगाह बचाते हुए जय की ओर देखा। वो खाने में तल्लीन था। नेहा फिर से खाने में ऐसे लग गई जैसे उसने जय को देखा ही नहीं। निवाला मुंह में डालते हुए उसने जय से पूछा- आज खाना खाने के बाद ही चाय क्यूं पीनी है?
जय- बस, यूं हीं... तुमसे कुछ बात करनी है।
नेहा- बात तो रोज ही होती है... आज ऐसा क्या अर्जेंट आ गया कि चाय पर चर्चा करने की नौबत आ गई?
जय- देखो अगर तुम्हें चलना है तो बताओ, अगर नहीं चलना चाहती तो मैं कोई जबरदस्ती तो कर नहीं सकता तुम्हारे साथ।
नेहा- हम्म....ऐसा कुछ करने की कभी सोचना भी मत। अच्छा रोओ मत... चलते हैं। अब खाना निपटाओ पहले।
जय ने थोड़ी राहत महसूस की क्योंकि उसे लग नहीं रहा था कि नेहा इतनी आसानी से तैयार हो जाएगी। हाथ धुलने के बाद दोनों चाय पीने चल दिए।
रास्ते में जय ने कहा- अच्छा, ये बताओ.... राहुल में ऐसी क्या बात थी कि तुम उस पर इतना भरोसा करने लगी थी?
सवाल सुनने के बाद भी नेहा चलती ही रही... उसने कोई जवाब नहीं दिया। चाय की दुकान पर पहुंच कर जय ने दो कप चाय ली और दोनों नीम के पेड़ के नीचे खड़ी एक कार की टेक लेकर खड़े हो गए। तेज धूप और उमस के चलते गर्मी अपने चरम पर थी। नेहा का पूरा चेहरा लाल हो गया था। पसीने के चलते उसके सिर के बाल माथे पर चिपक रहे थे। चाय पीने का उसका बिल्कुल भी मन नहीं था, लेकिन पता नहीं क्यों मना नहीं कर पाई।
जय ने बात छेड़ते हुए कहा- अगर जवाब नहीं देना चाहती हो तो कह दो.... आगे से मैं कुछ पुछूंगा ही नहीं।
नेहा को इस बात पर गुस्सा आ गया। उसने कहा- तुम्हारे साथ यही प्राॅब्लम है। तुम्हें ये क्यों लगता है कि कोई बोल नहीं रहा है तो वो तुमसे नाराज ही है। क्या किसी के पास दुनिया में और कोई परेशानी नहीं हो सकतीा?
जय को नेहा की इस बात पर हंसी आ गई। उसने कहा- अच्छा, ये सब छोड़ो... तुम तो मेरे सवाल का जवाब दो अब...
नेहा जय की ओर देख कर कुछ सोचने लगी। कुछ मिनट सोचने के बाद उसने कहा- देखो, मैं ये दावा नहीं कर सकती कि मैं उसे पूरी तरह समझ ही गई थी लेकिन, हम दोनों के बीच शुरुआत कुछ अजीब थी।
शुरु में हम शायद ही कभी बात करते। वो हर समय किसी न किसी बात पर मुझे डांटने की फिराक में रहता। लेकिन अचानक पता नहीं क्या हुआ कि उसने मुझे डांटना बंद कर दिया। वो मुझसे बात करने के ज्यादा से ज्यादा मौके तलाशने लगा। पहले चाय से लेकर खाने जाने तक किसी बात के लिए वो मुझसे पूछता तक नहीं था लेकिन, अब जितनी बार भी बाहर जाता मुझे साथ चलने को कहता।
सच कहूं तो मैं थोड़ा डर गई थी। किसी भी लड़की को ऐसे मौके पर जो डर होता है वो मुझे भी था। मैं इतना परेशान रहने लगी कि मैंने कई लोगों से इस बारे में बात भी की और इसे समझने की कोशिश भी की, लेकिन मुझे कहीं से कोई सही जवाब नहीं मिला। या शायद मैं किसी को अपनी बात ठीक से समझाा ही नहीं पाई।
लेकिन मेरा ये डर धीरे-धीरे कम होने लगा, क्योंकि जब भी मैं उसके साथ कहीं गई, मुझे कुछ न कुछ सीखने को ही मिला। वो हमेशा ये कोशिश करता कि मैं ऐसे कामों में ज्यादा से ज्यादा हिस्सा लूं ताकि मेरा एक्सपोजर बढ़े और मैं करियर में कुछ बेहतर कर सकूं।
राहुल से शुरुआती मुलाकात की बात बताते वक्त नेहा के चेहरे पर जो तनाव था वो खत्म हो चुका था। तेज गर्मी के बावजूद अब उसके चेहरे पर सुकून की छांव ने अपना डेरा डाल लिया था। उसकी बातों से ऐसा लगा जैसे राहुल के व्यवहार में आए बदलाव से शुरु में वो भले ही परेशान थी, लेकिन जल्द ही उसे लगने लगा कि इसमें कुछ तो है जो औरों से अलग है। राहुल के इस अजीब से कैरेक्टर को समझने में नेहा को मजा आने लगा था।
नेहा ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा- राहुल अक्सर अपनी बात मुझ पर थोपने की कोशिश करता, ये बात मुझे बुरी लगती लेकिन उसकी बातों को पूरी तरह से काटना या सिरे से खारिज करना आसान नहीं था। कुछ चीजों पर उसका नजरिया मुझे चैंका देता। जैसे, एक दिन उसने कहा- देखो ये जरूरी नहीं कि अगर उम्र में कोई तुमसे बड़ा है तो वो तुमसे ज्यादा समझदार ही होगा। ये बात रिश्तों पर भी लागू होती है, चाहे वो मां-बाप ही रिश्ता क्यों न हो।
ये बात कहते हुए नेहा के होटों को एक चंचल सी मुस्कुराहट छूकर चुपके से निकल गई। इसके बाद नेहा ने एक-एक कर उन घटनाओं को याद करना शुरु किया जिसने राहुल के बारे में उसकी सोच को बदला था...

कुछ-कुछ बदलने लगी वो

पिछले दो दिन से जय को न जाने क्यों ये लग रहा था कि नेहा किसी बात पर उससे नाराज है। कहने को वो दोनों रोज वैसे ही मिल रहे थे जैसे मिलते थे लेकिन, अचानक कुछ बदल सा गया था दोनों के बीच। जय इस बात को लेकर बेचैन था लेकिन, नेहा को जैसे कोई फर्क ही नहीं पड़ता था इन बातों का। किसी बात पर ओवर-एक्साइटेड हो जाना या बहुत खुश हो जाने की नेहा की आदत बहुत आम है जिसे उसके साथ काम करने वाले सभी जानते हैं। लेकिन, कौन सी बात उसे बुरी लगी या किस बात पर वो हर्ट हुई है, इसे समझना बहुत मुश्किल था।
इतने दिनों से साथ रहते-रहते जय उसकी इस आदत को थोड़ा-थोड़ा समझने लगा था। लोग भले ही कहें कि लड़कियों के नखरे बहुत होते हैं लेकिन, नेहा में नखरे जैसी कोई बात नहीं थी। अगर उसे कोई बात बुरी लगती तो रिऐक्ट करने की जगह वो उसे ऐसे इग्नोर कर देती जैसे उसने कुछ सुना ही नहीं। जबकि, नेहा के उलट जय किस बात पर खुश है ये जानना मुश्किल होता। हाँ, कुछ भी बुरा लगने पर वो इतना आग-बबूला हो जाता कि फिर उसे ब्रह्मा भी नहीं संभाल सकते। नेहा ने कई बार उसे समझाया भी कि इतना टेंशन क्यों लेते हो। वो मजाक में जय से ये भी कहती कि टेंशन लेने से बाल जल्दी सफ़ेद हो जाते हैं और मोटापा भी बढ़ता है क्योंकि, जय इन दोनों समस्याओं से परेशान था।
हालांकि, नेहा की संगत का असर जय पर दिखने लगा था। अब वो अपने गुस्से पर काबू करना या उसे इग्नोर करना सीखने लगा था। उसे ये बात बुरी लगती कि नेहा किसी बात पर नाराज नहीं होती लेकिन, वो छोटी-छोटी बातों पर बच्चों की तरह मुंह फुला लेता है। लेकिन इस दौरान अजीब बात ये हुई कि पिछले कुछ दिनों से नेहा का स्वभाव बदलने लगा था। अक्सर वो जय को किसी न किसी बात पर डांट देती या उसे चुप करा देती। इसका असर ये हुआ कि अब जय कुछ भी बोलने से पहले ये जरूर सोचता कि कहीं ये बात उसे बुरी न लग जाए। पता नहीं क्यों, लेकिन अब वो नेहा से थोड़ा-थोड़ा डरने लगा था।
इसलिए आज दोपहर में जब दोनों चाय पी रहे थे तो जय ने पहले नेहा को टटोलने की कोशिश की कि कहीं वो नाराज तो नहीं है। इत्मीनान होने के बाद उसने कहा- पता है इंसान के साथ दिक्कत क्या है? वो हर जगह अपना दिमाग लगा देता है। लोगों को ये गलतफहमी रहती है कि गाड़ी में हैंडल या स्टेयरिंग ही सबसे जरूरी होती है क्योंकि, वही तय करती है कि गाड़ी किस दिशा में जाएगी जबकि, इंजन के बिना गाड़ी के किसी पार्ट का कोई महत्व नहीं है। ठीक वैसे ही जैसे दिमाग के बिना तो शरीर जिंदा रह जाता है लेकिन, दिल के बंद होते ही इंसान को मरा हुआ घोषित कर दिया जाता है। अच्छा तुम बताओ, जब शरीर का इंजन (दिल) चलेगा ही नहीं तो हम दिशा देंगे किसे? लेकिन लोग न जानें क्यों कुछ अच्छा होने पर दिमाग की दाद देते हैं और बुरा होते ही इंसान को जज़्बाती कह दिया जाता है।
नेहा ने जय की इस बात का जवाब देने की बजाए पलट कर उससे सवाल कर दिया- तुम कहना क्या चाहते हो? सीधा-सीधा क्यों नहीं कहते, इतना घुमाते क्यों हो बात को?
जय- मैं कहां घुमा रहा हूँ। तुम्हीं कल से मुझे घुमाए जा रही हो। मैंने तुमसे कहा है कि दिमाग वहां लगाया करो जहां लगाना चाहिए। लेकिन तुम्हें तो ये दिखाना है कि तुम्हारे पास किसी से कम दिमाग थोड़े ही है।
ये सुनते ही नेहा के चेहरे पर तनाव पसर गया। उसने खीजते हुए कहा- देखो, मुझे नहीं पता तुम क्या सोचते हो लेकिन, तुम्हे कोई कहानी नहीं मिली तो उसके लिए मैं क्या करूँ। मुझे जो समझ में आया मैंने वो कहा... क्या कोई जबरदस्ती है कि मैं वही कहूं जो तुम्हें अच्छा लगे या तुम्हारे काम का हो। मैं इंसान हूँ, कोई मशीन नहीं।
नेहा की आवाज में आए इस तीखेपन को जय ने भांप लिया। वो समझ गया कि दिल और दिमाग वाली बात नेहा को बुरी लगी है। इससे पहले कि जय बात को संभालता नेहा ने इशारा कर दिया कि वो बातचीत को और आगे नहीं बढ़ाना चाहती। उसने जय से बोला- मैं निकल रही हूँ, मुझे कुछ काम है इसलिए जल्दी जाना होगा।
इतना कहते हुए वो सीढ़ियों की ओर बढ़ी और तेजी से नीचे उतर गई। जय कुछ देर तक वहीं खड़ा रहा, उसने जेब से सिगरेट निकाली, सुलगाया और कुछ सोचने लगा...

लड़कों को ये सब कहां झेलनी पड़ता है

जय- तुम्हे रोज-रोज एक ही काम करते हुए ऊब नहीं होती?
नेहा- होती तो है पर क्या करूं।
जय- कभी सोचती नहीं कि इससे छुटकारा मिलना चाहिए?
नेहा- सोचने से थोड़े ही छुटकारा मिल जाता है।
जय- फिर...
नेहा- असल में तुंम्हारे पास तो और कोई काम है नहीं। ऑफिस से फ्री होने का बाद भी तुम इन्हीं बातों में उलझे रहते हो, क्योंकि तुम्हे घर, बीवी-बच्चे या किसी और काम का टेंशन लेना नहीं पड़ता।
तुम्हे पता है यहां से निकलने के बाद मैं घर भले ही पहुंच जाऊं लेकिन, ग्यारह बजे रात के पहले अपने कमरे में नहीं जा पाती। तो फिर ये ऊल-जलूल सोचोगे कब? बड़ी मुश्किल से पांच-छह घंटे की नींद मिल पाती है, आंख खुलते ही ऑफिस जाने का टेंशन। लड़कों को ये सब परेशानी कहां झेलनी पड़ती है।
तुम्हे क्या है? रूम पर पहुंचे, खाना ऑर्डर किया और पसर गए। फिर तुम चाहे रोज एक कहानी लिखो, दो मैग्जीन पढ़ो, यू-ट्यूब पर गुलज़ार का इंटरव्यू सुनो या ग़ालिब के शेर पढ़ो। तुम्हें तो कोई बोलने या रोकने वाला है नहीं?
यहां तो ऑफिस से जाने के बाद भी अगर कुछ पढ़ने की कोशिश करो तो लगता है पता नहीं कौन सा गुनाह कर रहे हैं? आपके सामने आपसे बड़ा काम करे और आप बैठ कर किताब पढ़ो ये भी तो अच्छा नहीं लगता।
जय- हां, बात तो तुम्हारी सही है। अच्छा तुम्हें ये क्यों लगता है कि मेरे पास फैमिली नहीं है इसलिए मुझे काम से ऊबने का खयाल आता है? या मैं कुछ नया करने की सोचता हूं।
नेहा- हां, क्योंकि अगर फैमिली होती तो इतना वक्त ही नहीं मिलता तुम्हें कि ये सब तुम सोच पाते?
जय- तो क्या तुम ये कहना चाहती हो कि फैमिली में उलझे रहना ही ठीक है। ताकि करियर, प्रोफेशन, इनोवेशन इन सब के लिए कोई जगह ही न बचे जीवन में? यानी जो लोग इन चीजों में अपना समय लगाते हैं वो बेकार लोग होते हैं?
नेहा- लेकिन ऊबने से क्या होगा? मैं ऊब के नौकरी छोड़ दूं और घर बैठ जाऊं। मुझे वक़्त बर्बाद करना बिल्कुल पसंद नहीं है। और घर पर बैठने से क्या होगा? दिन भर वही सब... घर साफ करो, चाय बनाओ, मेहमान आएं तो उनकी आवभगत करो... बस।
छोड़ने से पहले कुछ करने का प्लान भी तो होना चाहिए। जिनके पास कोई प्लान होता है वो उलझते या सोचते नहीं, बल्कि छोड़ देते हैं। न ही इस तरह की बहस में अपना टाइम खराब करते हैं।
जय- लेकिन प्लान, आइडिया या कोई नया रास्ता आसमान से तो टपकता नहीं। जिन्हें मिलता होगा वो भी तो इसी तरह की उलझन से गुजरते होंगे और इससे निकलने के रास्ते के बारे में इस हद तक सोचते और करते होंगे कि उन्हें कुछ न कुछ मिल ही जाता होगा। कहा भी तो जाता है कि खोजने से तो भगवान भी मिल जाते हैं।
नेहा- हां, शायद तुम ठीक कह रहे हो। मुझे भी पहली नौकरी ऐसे ही मिली थी। मेरी पढ़ाई खत्म हो गई थी और घर वालों ने साफ कह दिया था कि अगर नौकरी नहीं मिल रही है तो घर वापस आ जाओ। यहीं रह कर नौकरी ढूंढना, ऐसा नहीं है कि यहां नौकरी नहीं मिलेगी। लेकिन मैं घर वापस नहीं जाना चाहती थी, इसलिए नौकरी पाने के लिए मैंने अपनी ताकत लगा दी और मुझे नौकरी मिल ही गई दिल्ली में।

'मैं किसी के सामने हाथ नहीं फैला सकती'

जय - अच्छा तुमने ये फैसला क्यों लिया कि तुम्हें दिल्ली में ही पढ़ाई करनी है। जो पढ़ाई तुम यहां कर रही थी उसे तो तुम अपने शहर में रहकर भी कर सकती थी।

नेहा - क्या करती, करना तो मैं एमबीए चाहती थी लेकिन, उस साल यूपीटीयू के किसी कॉलेज में मुझे एडमिशन नहीं मिला और घर वाले शादी का प्रेशर बढ़ाते जा रहे थे।
मैंने सोच रखा था कि ये चाहे जितना प्रेशर डालें जब तक मैं नौकरी नहीं कर लेती शादी नहीं करूंगी, लेकिन अब तो एमबीए होने से रहा और अगर घर में खाली बैठती तो दो-चार महीने में ही घर वाले शादी करा देते।
नौकरी पाने के सपने पर भी पानी फिरने वाला था और दूसरा कोई रास्ता सूझ नहीं रहा था। मैं किसी भी तरह यहां से निकलना चाहती थी। तभी एक दिन अखबार में मुझे दिल्ली के इस इंस्टीट्यूट के बारे में पता चला। बस मैंने अप्लाई कर दिया और किस्मत से एग्जाम भी पास कर गई। जैसे ही मुझे दिल्ली जाने का रास्ता मिला मैंने ठान लिया कि यहां तो एडमिशन लेना ही है चाहे उसके लिए कुछ भी करना पड़े।

जय - तो क्या तुम्हारे घर वाले मान गए? एक छोटे शहर की लड़की को एकदम से इतने बड़े शहर में भेजने के लिए, वो भी अकेले?

नेहा - तुम्हे क्या लगता है इतना आसान था ये सब। लाख समझाने के बाद भी पापा ने साफ मना कर दिया। आखिर में मैंने ही उनसे कहा कि मैं अकेली नहीं रहूंगी। मामा तो दिल्ली में रहते ही हैं उन्हीं के यहां रह लूंगी। फिर भी पापा तैयार नहीं थे लेकिन, मम्मी ने उन्हें किसी तरह समझाया।

जय - फिर...

नेहा - फिर क्या... मुझे तो पता ही था कि ये कोर्स करके छोटी-मोटी नौकरी पाना मेरा मकसद नहीं है। मुझे लगा कि इस पढ़ाई से मेरी राइटिंग स्किल कुछ ठीक हो जाएगी और दिल्ली में रहकर सिविल सर्विस की तैयारी करने का रास्ता भी खुल जाएगा।
लेकिन एडमिशन लेने के बाद एक नया ही लोचा सामने आया। पता चला कि जिस कॉलेज में एडमिशन लिया है वो तो हमारे स्कूल से भी गया-गुजरा है। सुबह एक बार कैंपस में घुसे तो शाम के पहले बाहर निकलना असंभव।
क्लास भी मिस नहीं कर सकते थे, क्योंकि एग्जाम में बैठने के लिए 75% अटेंडेंस जरूरी थी। सिविल की तैयारी वाले प्लान पर खतरा दिखने लगा। फिर भी मैंने तय किया कि शाम के वक्त सिविल की कोचिंग ज्वाइन कर लूंगी तो दोनों मैनेज हो जाएगा, लेकिन...

जय - लेकिन क्या...

नेहा - तुम तो जानते ही हो, किसी दूसरे के घर की लड़की को अपने घर में रखने में लोग कितना डरते हैं, चाहे वो कितने भी क्लोज रिलेशन में क्यों न हों। मेरे साथ भी वही हुआ।
यहां आते ही रोज-रोज ताने सुनने का सिलसिला शुरु हो गया। इसके बावजूद सुबह तो मैं किसी तरह कॉलेज पहुंच जाती लेकिन, सिविल की कोचिंग शाम को ही हो सकती थी। अब रोज वहां लाता ले जाता कौन? अकेले जाने की परमिशन मिलने से रही। सो, धरा रहा गया सबकुछ...

जय - लेकिन, तुम नौकरी के बाद ही शादी क्यों करना चाहती थी? ये काम तो शादी के बाद भी हो सकता था?

नेहा - हां, लेकिन मैं अपनी जरूरतों के लिए किसी के सामने हाथ नहीं फैलाना चाहती थी... बस इसलिए।

मेरे सारे बेस्ट फ्रेंड मुझे छोड़ गए

नेहा - दिल्ली आने के बाद जब पहली बार मैं क्लास में गई तो मुझे कुछ अजीब सा लगा। हमारे शहर में स्कूल हो या कॉलेज क्लास में एक तरफ लड़के बैठते हैं और दूसरी तरफ लड़कियां। लेकिन यहां तो लड़के-लड़कियां एक ही सीट पर बैठ रहे थे।

जय - तो तुम्हें एडजेस्ट करने में परेशानी नहीं हुई?

नेहा - नहीं... असल में जल्द ही मुझे समझ में आ गया कि इस सिस्टम से फायदा ज्यादा है। लड़के-लड़कियों की एक-दूसरे को लेकर फैंटेसी या कहो गलतफहमी को इस माहौल में पनपने का ज्यादा मौका ही नहीं मिलता।

जय - ऐसा कैसे कह सकती हो तुम?

नेहा - हां, क्योंकि मैं खुद बहुत कुछ उल्टा-पुल्टा सोचती थी, लेकिन...

जय - लेकिन क्या...

नेहा - यही... कि सिगरेट या शराब पीने वाले लड़के अच्छे नहीं होते, ऐसे लोगों से दूर ही रहना चाहिए.... वगैरह-वगैरह। हालांकि, मैं अभी भी यही मानती हूं कि ये चीजें अच्छी नहीं होती लेकिन, धीरे-धीरे मुझे पता लगा कि ये चीजें सोशल गेदरिंग का एक बहाना भर हैं.... बस।

जय - लड़कों के बारे में और भी कोई भ्रम टूटा तुम्हारा.... यहां आने के बाद?

नेहा - बल्कि... लड़कियों के बारे में भी टूटा... (इतना कह के वो ज़ोर से हंस पड़ी)
मैंने देखा कि कुछ लड़कियों के ढेर सारे दोस्त लड़के भी थे। जब वो लड़कों के बीच होती तो बिल्कुल उनके ही स्टाइल में बात करती, सिगरेट पीती और कभी-कभी तो शराब भी। ऐसी लड़कियों के कॉन्टैक्ट्स अच्छे थे और वो बहुत कॉन्फिडेंट भी थीं।

जय - अच्छा, कॉलेज छूटने के बाद कोई ऐसी चीज है जो तुम अब भी मिस करती हो?

नेहा - हां, (उसके चेहरे पर अचानक से उदासी आ जाती है, बल्कि आंखों में थोड़ी नमी भी)... मेरे जो भी अच्छे दोस्त होते वो बाद में किसी और के बेस्ट फ्रेंड बन जाते थे। मेरी एक फ्रेंड जिसे मैं सबसे ज्यादा मानती थी वो भी किसी और की दोस्त बन गई और मुझसे दूर हो गई।

जय - ये भी तो हो सकता है कि तुम्हारे वो सारे दोस्त तो लगातार चलते रहे लेकिन, तुम रास्ते में ही कहीं रुक गई....आराम करने लगी?

नेहा ने इस बात का कोई जवाब नहीं दिया.... बस आसमान की ओर देखती रही और अचानक वहां से चली गई।

उसका बाइक पर बैठना लोगों को खटक गया

नेहा के घर से कॉलेज की दूरी इतनी थी कि उसे दो जगह बस बदलनी पड़ती थी। उस रास्ते से तमाम लड़के-लड़कियां आते-जाते थे जिनमें से एक राहुल भी था। वो बाइक से कॉलेज आता-जाता था और नेहा की ही क्लास में पढ़ता था। जल्द ही दोनों में जान-पहचान हो गई। कॉलेज छूटने के बाद नेहा बाइक पर उसके साथ ही बस स्टॉप तक जाने लगी लगी।

दोनों के बीच अच्छी बनने लगी थी। एक दिन बातों-बातों में राहुल ने नेहा से पूछा - यार आज कहीं घूमने चलें क्या? देख न मौसम कितना अच्छा हो रहा है।

पिछले एक महीने से पड़ रही जला देने वाली गर्मी के बीच आज सुबह से बादल मेहरबान थे। बारिश तो नहीं हो रही थी लेकिन, हवा में मौजूद खुशनुमा नमी बता रही थी कि आस-पास बादल जम के बरसे हैं। मौसम देखने के बाद मन तो नेहा का भी बहुत था लेकिन, वो ये बात कह नहीं पा रही थी। जैसे ही राहुल ने उसके सामने प्रस्ताव रखा वो एकदम से चहक उठी। लेकिन फिर तुरंत ही उसने खुद को संभाल लिया और अनमने मन से बोली - यार, आज तो मुझे जल्दी घर पहुंचना है। घर पर कुछ मेहमान आने वाले हैं और मम्मी अकेले परेशान हो रहीं होंगी। तुम निकल जाओ, मैं आज पैदल ही बस स्टॉप तक चली जाउंगी, मौसम भी तो अच्छा ही है अभी।

राहुल ने नेहा के चेहरे से एक ही पल में गुजरे कई भावों को देख लिया था। उसने थोड़ा गंभीर हो के पूछा - क्या कोई दिक्कत है? कम से कम अपनी परेशानी तो तुम मुझे बता ही सकती हो। हां... हो सकता है कि मैं तुम्हारी उलझन सुलझा न सकूं लेकिन, तुम्हारे दिल का बोझ तो हल्का हो ही जाएगा।

लड़कियों में न जाने ऐसी कौन सी खासियत होती है कि उनके दिमाग के अंदर और चेहरे पर दिख रहे भावों के गैप को वो इतनी तेजी और आसानी से मैनेज करती हैं कि सामने वाला बस देखता ही रह जाता है। नेहा ने खुद को संभालते हुए जवाब दिया - अरे यार, इतना सीरियस होने की कोई जरूरत नहीं है। वैसे भी फैमिली के मामले मैं बाहर वालों के साथ डिस्कस नहीं करती।

नेहा के इस जवाब ने राहुल को एक पल के लिए सकते में डाल दिया, लेकिन उसने भी खुद को तुरंत ही संभालते हुए बोला - अरे यार मुझे क्या पड़ी है तेरे फैमिली मैटर में पड़ने की, मैंने तो बस यूं ही तुझसे पूछ लिया लेकिन तू तो भाव ही खाने लगी। चल कोई नहीं, तू अपने मेहमान संभाल, मैं तो चला तफरी पर।

राहुल की ये बेरुखी नेहा को बुरी तो लगी लेकिन, असल में उसकी परेशानी की वजह दो दिन पहले बस स्टॉप पर कॉलेज की लड़कियों की वो बातचीत थी जिसे चुपके से उसने सुन लिया था।

उस दिन लड़कियां गॉसिप में ऐसी मशगूल थीं कि उन्हें नेहा के बस स्टॉप पर आने का पता ही नहीं चला। लड़कियों के झुंड में से ही किसी ने कहा - यार आजकल तो नेहा की चांदी ही चांदी है। कॉलेज से निकलते ही मैडम के लिए गेट पर ही बाइक लगी रहती है। मैडम बैठती हैं और फुर्र हो जाती हैं।

तभी दूसरी लड़की ने कहा - हां भाई, सबकी किस्मत कहां इतनी तेज होती है कि कॉलेज से निकलते ही एंटरटेनमेंट का सामान खुद चलकर आए और आपकी हर सेवा करे।

इतना सुनते ही लड़कियों का पूरा झुंड इतनी जोर से हंसा कि बस स्टॉप पर खड़ा हर शख्स उनकी ओर ही देखने लगा। नेहा, ने समझ लिया कि इस बात को तिल का ताड़ बनते देर नहीं लगेगी। वो किसी भी हालत में अपनी पढ़ाई पर आंच नहीं आने देना चाहती थी, बस इस फैसले ने ही आज अचानक नेहा को इतना कठोर बना दिया कि उसने अनजाने में ही राहुल से वो सब कह दिया जो वो कहना नहीं चाहती थी। राहुल के जाने के बाद काफी देर तक नेहा अकेली ही बस स्टॉप पर खड़ी रही।