Wednesday 29 August 2018

उस बारिश में भीगना... रह-रह कर सताता है

आज जय का मूड कुछ ठीक नहीं था इसलिए, शाम को उसने अपने एक दोस्त को घर बुलाया और साथ में बीयर की चार केन लाने को भी बोल दिया। शाम सात बजे से दस बजे तक दोनों ने बीयर पी और इधर-उधर की बातें करते रहे। दोस्त के जाने के बाद जय ने कमरे की लाइट आॅफ की और बिस्तर पर यूं ही लेट गया। कपड़े तक नहीं बदले।
लेटने के बाद उसे एहसास हुआ कि धीरे-धीरे नशा चढ़ रहा है लेकिन, नींद नहीं आ रही। रह-रह कर उसकी आंखों के सामने नेहा का चेहरा घूम जाता। जय ने अपना ध्यान कहीं और ले जाने की पूरी कोशिश की लेकिन वो नाकाम रहा। अपने मोबाइल में पड़ी कुछ क्लिप और घर की तस्वीरें देख कर उसने मन बहलाना चाहा लेकिन, उसे लगता जैसे हर तस्वीर में उसे नेहा ही दिखाई दे रही है। तभी अचानक घड़ी पर उसकी निगाह पड़ी, रात के सवा ग्यारह बज रहे थे।
उससे रहा नहीं गया, उसने नेहा को फोन लगा दिया। जय को पूरी उम्मीद थी कि नेहा फोन नहीं उठाएगी लेकिन, तीन रिंग के बाद ही फोन उठा गया। उधर से आवाज आई- क्या हुआ... इतनी रात में फोन क्यों किया?
जय का दिमाग बुरी तरह घूम रहा था। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि जवाब क्या दे। जय ने खुद को संभालते हुए कहा- बस यूं ही... तुम सोई नहीं अब तक?
नेहा- हां, बस सोने ही जा रही थी... तो क्या तुमने ये पूछने के लिए फोन किया है? देखो नाटक मत करो.... साफ-साफ बताओ, क्या बात है?
जय को समझ में नहीं आ रहा था कि वो कहे तो क्या कहे। नशे की वजह से उसका दिमाग भी उतनी तेजी से काम नहीं कर रहा था। कुछ सेकेंड चुप रहने के बाद उसने जवाब दिया- बस, मुझे नींद नहीं आ रही थी... तुमसे बात करने का मन किया इसलिए, लगा दिया।
इस दौरान जय को मौका मिल गया और उसने तुरंत बात पलटते हुए कहा- तुमने खाना खा लिया क्या?
नेहा- हां, खाना तो पौने नौ बजे ही खा लिया था। अब सोने जा रही हूं। मुझे भी थोड़ा काम था इसलिए देर हो गई।
तब तक नेहा को अचानक जैसे कुछ याद आ गया। उसने कहा- अच्छा सुनो, जिन तीन किताबों की सुबह तुम बात कर रहे थे, वो तीनों ही किताबें मेरी एक फ्रेंड ने पढ़ी हैं। उसने भी काफी तारीफ की है उनकी। मैंने आज ही आॅनलाइन उन तीनों किताबों का आॅर्डर दे दिया है।
जय ने बात आगे बढ़ाने के लिए बस यूं ही पूछ दिया- किस राइटर की बात कर रही हो तुम?
नेहा- अरे वही, अनिमेश त्रिपाठी।
ये सुनते ही जय हंस पड़ा। उसने फिर से पूछा- क्या नाम बताया तुमने...
तब तक नेहा समझ गई कि उसने नाम गलत बता दिया है। उसने कहा- हां, पता है नाम गलत बताया है मंैने... मुझे लगा तुम ठीक कर दोगे।
इस दौरान जय जोर-जोर से फोन पर हंसता रहा। उसकी हंसी सुन नेहा से भी रहा नहंी गया और वो भी हंस पड़ी। जय बार-बार उससे राइटर का नाम पूछता और हंसने लगता। कुछ देर तक दोनों फोन पर ही खूब हंसते रहे।
हंसते-हंसते जय के आंख से पानी बहने लगा। उसने नेहा से कहा- यार, तुम तो न.... मुंबई निकल जाओ। तुम्हें पता नहीं है कितना टैलेंट है तुम्हारे अंदर। तुम रातों-रात काॅमेडी किंग.... आई मीन, काॅमेडी क्वीन बन सकती हो।
नेहा ने अपनी हंसी रोकते हुए कहा- मैं जहां हूं ठीक हूं। मुझे काॅमेडी किंग या क्वीन नहीं बनना है, समझे तुम। बहुत हंस चुके तुम.... अब चुप हो जाओ।
जय की हंसी अभी भी नहंी रुक रही थी। उसने कहा- एक बार फिर से बताओ न... राइटर का नाम।
इतना कह के वो फिर जोर से हंस पड़ा। उसने नेहा से कहा- यार, तुमने तो दस मिनट में ही मेरा पूरा नशा उतार दिया।
उधर से नेहा कुछ बोली नहीं। अचानक कुछ सेकेंड के लिए दोनों चुप हो गए। जय भी अब सीरियस हो गया। गंभीर आवाज में उसने नेहा से पूछा- यार, एक दिन के लिए मैं तुम्हारे यहां आ जाउं क्या....
नेहा- क्यूं... यहां क्या है?
जय- बस, बहुत दिन से नदी किनारे बैठने का मन कर रहा है। सालों हो गए... जब से काॅलेज छूटा, ऐसा मौका मिला ही नहीं दोबारा। आजकल पता नहीं क्यूं फिर से वहां जा कर बैठने और लहरों को निहारने का मन कर रहा है।
इतना कहने के बाद जय शांत हो गया। नेहा ने भी कुछ नहीं कहा। चंद सेकेंड बाद जय ने ही नेहा से पूछा- तुम चलोगी तो अच्छा लगेगा... कुछ देर वहां बैठेंगे। बगल में ही एक चाय की दुकान है, उस इलाके का सबसे फेमस चाय वाला है वो। हिंदी के कई बड़े साहित्यकारों ने अपनी किताब में इस दुकान का जिक्र किया है। वहां चाय पीने का अलग ही मजा है। बोलो.... तुम चलोगी?
नेहा- नहीं, मेरे घर वाले आए हुए हैं। मैं उन्हें छोड़ के नहंी जा सकती।
जय- अरे, दो तीन घंटे की ही तो बात है... बता देना कुछ काम है। मैं कहां पूरा दिन तुम्हें अपने साथ रहने के लिए कह रहा हूं।
नेहा- नहीं, मैं नहंी जा पाउंगी। तुम अकेले क्यों नहीं चले जाते... और तुम मेरे साथ ही क्यों जाना चाहते हो?
नेहा पहले भी कई बार ये सवाल उठा चुकी थी। अक्सर जब भी जय उससे कहीं चलने को कहता तो वो ये सवाल खड़ा कर देती कि मैं ही क्यूं... तुम किसी और के साथ क्यों नहीं जाते?
शायद अगर नेहा सामने होती तो जय इस बात को इग्नोर कर देता लेकिन, फोन पर ये बात सुनकर उसे गुस्सा आ गया। उसने कहा- देखो, तुम बार-बार ये सवाल क्यों करती हो कि मैं तुम्हारे साथ ही क्यों जाना चाहता हूं। आखिर तुम सुनना क्या चाहती हो?
तुम्हें पता है उस इलाके में ही मेरे सबसे अजीज दोस्त का घर है। मैं जब भी वहां जाता वो मेरे साथ होता था। मुझे उसके साथ वक्त बिताना अच्छा लगता है। वो अब किसी दूसरे शहर में जाॅब करता है और अकेले वहां जाना मुझे अच्छा नहीं लगता।
जय की आवाज थोड़ा तेज हो गई थी। वो गुस्स में था। उसने कहा- मैं तुम्हारे साथ जाना चाहता हूं क्योंकि... तुम्हारे साथ जाना मुझे अच्छा लगता है। क्यों जरूरी है कि हर चीज को एक नाम दिया जाए? क्या नाम देने से ही किसी चीज के सही या गलत होने का फैसला होता है।
नेहा ये सब सुनती रही, लेकिन उसने कुछ जवाब नहीं दिया।
जय बोलता ही रहा। उसने गुस्से में कहा- आखिर, तुमने अपना दिमाग लगा ही दिया। इंसान दिमाग लगाने की अपनी आदत से बाज नहीं आता, कहीं भी...
जय की बात सुनकर नेहा को लगा कि वो गलत बोल गई थी। उसने दबी आवाज में भरे गले से कहा- मैंने कोई दिमाग नहीं लगाया है, मैंने भी दिल ही लगाया है... जिद क्यों पकड़ लेते हो तुम, मैंने कहा न... अभी नहीं आ सकूंगी मैं। जिंदगी खत्म हुई जा रही है क्या? फिर कभी भी तो चल सकते हैं हम...
जय ने को कोई जवाब नहीं दिया। वो नेहा से कहना चाहता था- इसी मौसम में पहली बार मैं वहां गया था। उस दिन दोपहर में ही आसमान को काले बादलों ने ढंक लिया था। नदी के उस पार से ठंडी-ठंडी हवा आ रही थी। कुछ देर में ही बारिश शुरू हो गई। किनारे बैठा देर तक मैं भीगता ही रहा था।
जय बताना चाहता था कि उस बारिश को वो बहुत मिस करता है। वो एक बार फिर से उसी बारिश में भीगना चाहता है... लेकिन उसने नेहा से बस इतना ही कहा- ठीक है, अगर तुम्हारा मन नहीं है तो कोई बात नहीं...

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