Wednesday, 29 August 2018

लड़कों को ये सब कहां झेलनी पड़ता है

जय- तुम्हे रोज-रोज एक ही काम करते हुए ऊब नहीं होती?
नेहा- होती तो है पर क्या करूं।
जय- कभी सोचती नहीं कि इससे छुटकारा मिलना चाहिए?
नेहा- सोचने से थोड़े ही छुटकारा मिल जाता है।
जय- फिर...
नेहा- असल में तुंम्हारे पास तो और कोई काम है नहीं। ऑफिस से फ्री होने का बाद भी तुम इन्हीं बातों में उलझे रहते हो, क्योंकि तुम्हे घर, बीवी-बच्चे या किसी और काम का टेंशन लेना नहीं पड़ता।
तुम्हे पता है यहां से निकलने के बाद मैं घर भले ही पहुंच जाऊं लेकिन, ग्यारह बजे रात के पहले अपने कमरे में नहीं जा पाती। तो फिर ये ऊल-जलूल सोचोगे कब? बड़ी मुश्किल से पांच-छह घंटे की नींद मिल पाती है, आंख खुलते ही ऑफिस जाने का टेंशन। लड़कों को ये सब परेशानी कहां झेलनी पड़ती है।
तुम्हे क्या है? रूम पर पहुंचे, खाना ऑर्डर किया और पसर गए। फिर तुम चाहे रोज एक कहानी लिखो, दो मैग्जीन पढ़ो, यू-ट्यूब पर गुलज़ार का इंटरव्यू सुनो या ग़ालिब के शेर पढ़ो। तुम्हें तो कोई बोलने या रोकने वाला है नहीं?
यहां तो ऑफिस से जाने के बाद भी अगर कुछ पढ़ने की कोशिश करो तो लगता है पता नहीं कौन सा गुनाह कर रहे हैं? आपके सामने आपसे बड़ा काम करे और आप बैठ कर किताब पढ़ो ये भी तो अच्छा नहीं लगता।
जय- हां, बात तो तुम्हारी सही है। अच्छा तुम्हें ये क्यों लगता है कि मेरे पास फैमिली नहीं है इसलिए मुझे काम से ऊबने का खयाल आता है? या मैं कुछ नया करने की सोचता हूं।
नेहा- हां, क्योंकि अगर फैमिली होती तो इतना वक्त ही नहीं मिलता तुम्हें कि ये सब तुम सोच पाते?
जय- तो क्या तुम ये कहना चाहती हो कि फैमिली में उलझे रहना ही ठीक है। ताकि करियर, प्रोफेशन, इनोवेशन इन सब के लिए कोई जगह ही न बचे जीवन में? यानी जो लोग इन चीजों में अपना समय लगाते हैं वो बेकार लोग होते हैं?
नेहा- लेकिन ऊबने से क्या होगा? मैं ऊब के नौकरी छोड़ दूं और घर बैठ जाऊं। मुझे वक़्त बर्बाद करना बिल्कुल पसंद नहीं है। और घर पर बैठने से क्या होगा? दिन भर वही सब... घर साफ करो, चाय बनाओ, मेहमान आएं तो उनकी आवभगत करो... बस।
छोड़ने से पहले कुछ करने का प्लान भी तो होना चाहिए। जिनके पास कोई प्लान होता है वो उलझते या सोचते नहीं, बल्कि छोड़ देते हैं। न ही इस तरह की बहस में अपना टाइम खराब करते हैं।
जय- लेकिन प्लान, आइडिया या कोई नया रास्ता आसमान से तो टपकता नहीं। जिन्हें मिलता होगा वो भी तो इसी तरह की उलझन से गुजरते होंगे और इससे निकलने के रास्ते के बारे में इस हद तक सोचते और करते होंगे कि उन्हें कुछ न कुछ मिल ही जाता होगा। कहा भी तो जाता है कि खोजने से तो भगवान भी मिल जाते हैं।
नेहा- हां, शायद तुम ठीक कह रहे हो। मुझे भी पहली नौकरी ऐसे ही मिली थी। मेरी पढ़ाई खत्म हो गई थी और घर वालों ने साफ कह दिया था कि अगर नौकरी नहीं मिल रही है तो घर वापस आ जाओ। यहीं रह कर नौकरी ढूंढना, ऐसा नहीं है कि यहां नौकरी नहीं मिलेगी। लेकिन मैं घर वापस नहीं जाना चाहती थी, इसलिए नौकरी पाने के लिए मैंने अपनी ताकत लगा दी और मुझे नौकरी मिल ही गई दिल्ली में।

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