Sunday 15 April 2012

...जब एक धामके ने शुरू किया देश का सबसे खतरनाक गैंगवार


...सुपारी किलर एपिसोड- 8



कहते हैं जंग और प्यार में सब जायज है. 1993 (मुंबई) में हुए सिलसिलेवार बम धमाकों ने दो दोस्तों को एक-दूसरे का सबसे बड़ा दुश्मन बना दिया. इनमें से एक था दुनिया के सबसे खूंखार अपराधियों में शामिल डॉन दाऊद इब्राहीम और दूसरा राजेंद्र सदाशिव निकल्जे उर्फ़ छोटा राजन.

फिल्मों की टिकट ब्लैक करने वाले राजेंद्र सदाशिव निकल्जे की मुलाक़ात एक दिन राजन नैयर उर्फ़ बड़ा राजन से होती है और जल्द ही यह लड़का राजन का ख़ास आदमी बन जाता है.


बड़ा राजन की मौत के बाद राजेंद्र सदाशिव निकल्जे खुद को उसके काले धंधों का नया सरताज घोषित करता है और बन जाता है 'छोटा राजन'. जल्द ही मुंबई के जुर्म की दुनिया में तीन नामों का सिक्का जम जाता है. दाऊद इब्राहीम, अरुण गवली और छोटा राजन की यह तिकड़ी अंडरवर्ल्ड की दुनिया में आतंक का दूसरा नाम बन जाता है. अरुण गवली के भाई की हत्या, इस गैंग से उसके अलग होने की वजह बनी.


अब छोटा राजन और दाऊद, जुर्म की दुनिया के ऐसे सिक्के बन चुके थे जिसमें चित और पट दोनों पर ही डी-कंपनी का नाम लिखा हुआ था. सब कुछ ठीक वैसा ही चल रहा था जैसा दाऊद चाहता था.


जुर्म करने वालों का भले ही कोई धर्म न हो लेकिन, ईमान जरुर होता है. ये बात अगर दाऊद के बारे में गलत थी तो छोटा राजन के बारे में उतनी ही सही. दाऊद और राजन के बीच यह छोटा सा फर्क उस दिन एक बड़ी खाई बनकर सामने आता है जब पैसे और ईमान की लड़ाई में दाऊद पैसों को चुनता है, जबकि छोटा राजन ईमान को.


1993 के मुंबई बम धमाकों ने छोटा राजन को दाऊद के गैंग का सबसे बड़ा दुश्मन बना दिया, क्योंकि राजन के लिए देश के मासूमों और निर्दोषों की हत्या, पैसे के लिए ईमान बेचने के बराबर था. इस घटना के बाद शुरू हुआ एक ऐसा गैंगवार जिसने मुंबई के साथ पूरे देश को हिला कर रख दिया...


'...सुपारी किलर' की अगली कड़ी में पढ़िए इस गैंगवार का खतरनाक अंजाम.

Friday 13 April 2012

...और तब सपने आना भी बंद हो जाते हैं


पुस्तक समीक्षा

किताब: आई टू हैड अ लव स्टोरी (अ हार्ट ब्रेकिंग ट्रू लव टेल)
लेखक: रविंदर सिंह
भाषा: अंग्रेजी
पहला प्रकाशन: 2009
पब्लिशर: श्रृष्टि पब्लिकेशन एंड डिस्ट्रीब्यूटर
मूल्य: 100 रूपए

दुनिया देखने के लिए आंखें जरुरी होती हैं, लेकिन सपने देखने के लिए इन आंखों को बंद करना जरुरी होता है.

किसी की भी जिंदगी में सपने देखने और सपनों के टूटने से ज्यादा दर्दनाक होता है, सपनों का खत्म हो जाना.


हम सबका शरीर, मन, आत्मा कभी न कभी ऐसे दौर से गुजरता है जब आंखें बंद होते ही सपनों की फिल्म शुरू हो जाती है. ये सिलसिला तब तक चलता रहता है जब तक की हम किसी भयंकर पीड़ा, दुःख, अवसाद, असफलता या विछोह से नहीं गुजरते. अक्सर और शायद ज्यादातर मामलों में इस तरह के सदमों के बाद सपने गायब हो जाते हैं.


ऐसा नहीं है कि इस तरह का अनुभव हर किसी को होता ही है, लेकिन जिन्हें भी होता है, जिंदगी के प्रति उनका नजरिया बेहद असामान्य (आम लोगों से हट कर) हो जाता है. बदलाव की यह प्रक्रिया इंसान के भीतर ही एक दूसरे इंसान को जन्म देती है. इस दूसरे इंसान का व्यक्तित्व लंबे समय से जी रहे पहले इंसान से बिलकुल अलग हो जाता है.


जीवन को झकझोर देने वाली एक ऐसी ही घटना 26 साल के एक युवक (रविंदर सिंह) के साथ घटती है. ये एक घटना उसे जिंदगी के कई ऐसे पाठ पढ़ा जाती है जो उसकी अब तक की जिंदगी के सरे पाठ और अनुभव को खोखला और बौना साबित कर देती है.


इंटरनेट के इस 'सूचना युग' में एक प्रतिभाशाली युवा(रविंदर सिंह), एक बेहद खूबसूरत लड़की (ख़ुशी) से मिलता है. मिलन का माध्यम बनता है इंटरनेट (शादी डॉट कॉम). बेहद आम भाषा और शैली में लिखी गई यह किताब जीवन के एक बेहद पेचीदा सवाल पर ख़त्म होती है, "क्या बिना किसी मकसद, प्रेरणा और उत्साह के जिंदगी जी जा सकती है? क्या कोई है जो इन सारी चीजों को हमारी जिंदगी में लाता और एकदम से इन्हें हमसे छीन लेता है?


इस किताब को रविंदर सिंह ने ही लिखा है और ये कहानी उनके जीवन में घटी एक घटना पर आधारित है.

Tuesday 27 March 2012

जब दुनिया के सबसे खूंखार आका का दुश्मन बना उसका ही एक वफादार


'...सुपारी किलर' एपिसोड-7

लालच और गलत संगत ने दाउद को सिर्फ एक अपराधी ही नहीं, बल्कि एक आतंकवादी बना दिया था जिसका मकसद अपने फायदे के लिए किसी को भी नुकसान पहुँचाना था, भले ही वह अपना वतन ही क्यों न हो. उसके इसी लालच ने दाउद गैंग में ही उसके सबसे वफादार साथी को उसका दुश्मन बना दिया.

'राजेंद्र सदाशिव निखालजे' उर्फ़ 'छोटा राजन' जिसे दाउद का दाहिना हाथ कहा जाता था ने 1993 में हुए मुंबई बम धमाके के बाद न सिर्फ खुद को दाउद से अलग कर लिया, बल्कि उसने उन सब लोगों को ठिकाने लगाने की भी सोच ली जिन्होंने भारत के निर्दोष लोगों को निशाना बनाया था.

मुंबई बनी गैंगवार की राजधानी...

यहीं से छोटा राजन और दाउद गिरोह के बीच गैंगवार की शुरुवात हुई. डी-कंपनी छोड़ने के साथ ही अपने कुछ साथियों (मोहन कुट्टियन, साधू शेट्टी और जसपाल सिंह) के साथ छोटा राजन दुबई में जाकर बस गया.


जबकि उसे सबक सिखाने के लिए मुंबई में छोटा राजन के सबसे करीबी दोस्त रमानाथ पय्यादे की जून 1995 में दाउद के गुर्गों ने हत्या कर दी.


इससे पहले डी-कंपनी ने छोटा राजन के करीबी कहे जाने वाले फिल्म प्रोड्यूसर 'मुकेश दुग्गल' की हत्या करवा दी थी. छोटा राजन को सबक सिखाने के लिए दाउद का तरीका दिन पे दिन खौफनाक होता जा रहा था. उसे कमजोर करने की फिराक में दाउद हर उस शख्स को निशाना बना रहा था जिससे छोटा राजन के सम्बन्ध थे.


इस कड़ी में अगस्त 1995 में एक बड़ी घटना हुई जब राजन के करीबी रहे शार्प शूटर सुनील सावंत की भी मुंबई में हत्या हो गई. इसके अलावा राजन के दोस्त और मुंबई के बिल्डर ओ पी कुकरेजा की भी दाउद के गुर्गों ने हत्या कर दी.

छोटा राजन ने दिया डी-कंपनी को जोर का झटका

अब मौका था छोटा राजन के पलटवार का. उसने सबसे पहले ईस्ट वेस्ट एयरलाइंस के प्रबंध निदेशक थाकियुद्दीन वाहिद को निशाना बनाया जिसे किराए के किलर ने बम धमाके में उड़ा दिया.


लेकिन सबसे सनसनीखेज वारदात थी नेपाल के एक पूर्व मंत्री व संसद सदस्य मिर्ज़ा दिलशाद बेग की हत्या. दरअसल बेग को नेपाल में दाउद का सबसे ख़ास आदमी माना जाता था.

मुंबई बम धमाके के आरोपियों का फैसला किया छोटा राजन गिरोह ने...


इसके बाद छोटा राजन ने एक-एक कर उन सभी को निशाना बनाना शुरू किया जिहोने मुंबई बम धमाके का जाल बुना था. इसमें सबसे पहला शिकार सलीम कुर्ला था, जिसकी अप्रैल 1998 में हत्या हुई. इसके बाद जून में मोहम्मद जींदरान और मार्च 1999 में माजिद खान को भी राजन ने ठिकाने लगवा दिया.

हालांकि इसी दौरान डी-कंपनी ने शिवसेना के एक नेता मोहम्मद सलीम की भी हत्या करवा दी. ऐसा भी कहा जाता है कि इस घटना के बाद महाराष्ट्र की भाजपा सरकार छोटा राजन के पक्ष में हो गई और उसे रानीतिक संरक्षण भी मिलने लगा.


यहां तक कि शिवसेना के मुखपत्र 'सामना' में ये लिखा गया कि पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई छोटा राजन की हत्या कराने की फिराक में है.


फरवरी 2010 में छोटा राजन गिरोह ने जामिम शाह की हत्या करवा दी. माना जाता है कि वह नेपाल में एक बड़ी मीडिया हस्ती था और दाउद का समर्थक भी.


शाह के आईएसआई से भी सम्बन्ध थे और वह भारत में जाली मुद्रा पहुंचाने वाले गैंग का सरगना भी था. हालांकि उसके भारत विरोधी कामों से भारत सरकार लम्बे समय से परेशान थी. जिसे एक झटके में ही छोटा राजन ने ठिकाने लगा दिया.


'...सुपारी किलर' की अगली कड़ी में पढ़िए कैसे फिल्मों की टिकट ब्लैक करने वाला एक आम लड़का बन गया छोटा राजन...

Thursday 9 February 2012

अपने देश का यह शख्स है आतंक की दुनिया का सबसे खूंखार 'आका'


...'सुपारी किलर' एपिसोड - 6

80 के दशक में मुंबई में स्मग्लिंग से लेकर अपराध के हर तरीकों पर वरदराजन मुदलियार, करीम लाला, मस्तान मिर्जा उर्फ़ हाजी मस्तान का नाम एक 'ब्रांड' बन चुका था. इनके लिए ब्रांड शब्द का इस्तेमाल थोड़ा अटपटा जरुर लगता है, लेकिन ये छोटा सा शब्द काली दुनिया के इनके बड़े साम्राज्य को समझने का बस एक शॉर्टकट तरीका है.




वरदराजन मुदलियार, हाजी मस्तान और करीम लाला के बाद जिस नाम ने इनकी जगह लेना शुरू किया वो था 'दाउद इब्राहीम'. वैसे तो इस नाम से ज्यादातर लोग परिचित हैं ही. सभी को पता है कि दाउद जिस कंपनी (गैंग) को चलाता है, उसे ही शॉर्ट में 'डी-कंपनी' भी कहा जाता है. दाउद पर आधारित अपनी इस श्रृंखला में हम आपको कुछ ऐसी सच्चाइयों से रूबरू कराने जा रहे हैं जिन्हें कम ही लोग जानते हैं.




डर के साथ नफरत फैलाने वाला 'पहला डॉन'





मुंबई में जो लोग अब तक डॉन के नाम से अपना प्रभाव रखते थे वो भले ही स्मग्लिंग जैसे गैरकानूनी काम में लगे हुए थे, और उनके नाम का लोगों में डर था, लेकिन दाउद इस दुनिया में उभरा ऐसा पहला नाम था जिसने डर के साथ नफरत फैलाने का भी 'धंधा' शुरू किया. इसकी शुरुवात 1990 में उसके अफगानिस्तान जाने से ही हो गई थी, लेकिन 12 मार्च 1993 को मुंबई में हुए सीरियल बॉम्ब ब्लास्ट ने इस बात की आधिकारिक पुष्टि कर दी.




इसके बाद तो उसका नाम देश ही नहीं पूरी दुनिया में चर्चा में आ गया. 2001 में अमेरिका पर हुए आतंकी हमले से लेकर, 2003 में भारतीय संसद पर हमला, गुजरात में ब्लास्ट जैसी वारदातों से उसका नाम जुड़ने लगा. जल्द ही पता चला कि उसके सम्बन्ध अल-कायदा से लेकर ओसामा बिन लादेन तक से हैं.




दुनिया भर में बन गया आतंक का पर्याय




2003 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने दाउद को 'अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादी' घोषित किया, जबकि 2003 में ही भारत ने भी आतंकियों की हिट लिस्ट में दाउद का नाम सबसे ऊपर लिख दिया. अपराध और आतंक की उसकी दुनिया जिस तेजी से बढ़ रही थी, उसी तेजी से उसकी बदनामी का ग्राफ भी उठ रहा था. 2008 में फ़ोर्ब्स ने 'दुनिया के 10 सबसे खूंखार अपराधियों' की सूची में दाउद का नाम शामिल किया.




बढ़ते आतंक और मासूमों को निशाना बनाने का उसका यह खेल भले ही बहुत तेजी से पनप रहा था, लेकिन बढ़ रहे अत्याचार ने अपने ही गैंग में उसका सबसे बड़ा विरोधी पैदा कर दिया. इस शख्स ने दाउद के मजबूत किले में ऐसी सेंध लगाई कि एक-एक कर इसकी दीवारें ढहने लगीं.




'सुपारी किलर...' की अगली कड़ी में जानिए क्यों और कैसे इस अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादी की जड़ों को खोदने का काम उसके ही एक गुर्गे ने किया...

जुर्म की दुनिया के बादशाह का यहां हुआ फकीरों से भी बुरा हाल


...'सुपारी किलर' एपिसोड - 5


पिछली कड़ी में आपने पढ़ा कि कैसे जेल से निकलने के बाद हाजी मस्तान ने अपने काम और मकसद को आसानी से बदल लिया और फ़िल्मी दुनिया में अपना सिक्का जमाना शुरू कर दिया.





कहा जाता है हाजी मस्तान को शुरू से ही फिल्मों से काफी लगाव था और वह फिल्म अभिनेत्री 'मधुबाला'को बेहद पसंद करता था. इत्तेफाक से उसकी मुलाक़ात एक ऐसी अदाकारा से हुई जिसकी शक्ल मधुबाला से काफी मिलती थी. हाजी मस्तान उसकी खूबसूरती पर फ़िदा हो गया. 'सोना'नाम की इस अदाकारा के लिए उसने कई फिल्मों में पैसे भी लगाए और अंततः उससे शादी कर ली. हाजी ने सोना को जूहू में देव आनंद साहब के घर के बगल में बना एक बंगला भी गिफ्ट किया.





एक साइकिल वाला बना एक आलिशान कोठी का मालिक





हाजी मस्तान का बचपन बेहद अभाव और गरीबी में बीता था. बड़ा बनने का सपना और गरीबी से लड़ाई, ये दोनों चीजें जब एक साथ चल रही हों, तो चलने वाला अक्सर इस दोराहे के भंवर में उलझ जाता है.





ऐसे में इंसान या तो परिस्थितियों के आगे घुटने टेक देता है या व्यवस्था के खिलाफ खड़ा हो जाता है. ऐसा शायद इसलिए भी होता है कि अक्सर, खुद को नैतिकता के ठेकेदार कहने वाले संत, महात्मा या नेता के पास या तो ऐसा युवा पहुंच नहीं पाता या शायद पहुंचने ही नहीं दिया जाता.





हाजी ने स्मग्लिंग से काफी पैसा बनाया था और उस पैसे को उसने पानी की तरह खर्च भी किया. बचपन में जब वह अपनी साइकिल की दुकान से वापस अपनी बस्ती जाता था तो रास्ते में बने बड़े-बड़े बंगले हमेशा उसे ललचाते थे.





दरअसल,अपनी इन्हीं इच्छाओं को पूरा न कर पाने की बेबसी ने ही उसे एक साधारण साइकिल वाले से मुंबई का सबसे बड़ा डॉन बना दिया था. इसलिए जब उसके पास पैसे आए तो सबसे पहले उसने अपनी इन्हीं दबी इच्छाओं को साकार करने की कोशिश की और मुंबई के सबसे पॉश इलाके 'पेद्दा रोड' पर बने सोफिया स्कूल के ठीक सामने एक आलिशान हवेली खरीदी.





इस हवेली की छत से समन्दर साफ़ दिखाई देता था. कहते हैं हाजी मस्तान हवेली के ऊपरी हिस्से में बने एक छोटे से कमरे में रहता था जहां से वह अक्सर समन्दर को निहारता रहता था. शौक़ीन मिजाज हाजी को पढने का शौक था या नहीं ये कह पाना तो मुश्किल है, लेकिन उसके कमरे में तमिल के सभी बड़े अखबार और पत्रिकाएं जरुर आते थे. दरअसल, यही एक भाषा थी जिसे वह पढ़ सकता था.





हाजी मस्तान ने न सिर्फ बम्बई के पॉश इलाके में एक बड़ी कोठी खरीदी बल्कि, वह जब भी अपने बंगले से निकलता तो उस जमाने में स्टेटस सिम्बल कहलानी वाली 'मर्सिडीज बेंज' कार और महंगी ब्रांडेड सिगरेट और सफ़ेद डिजाइनर पोशाक में ही दिखाई देता.





जुर्म से कमाए पैसे के बल पर बनना चाहता था 'मसीहा'





हाजी मस्तान को जब यह लगने लगा कि अब जुर्म की दुनिया में उसके प्रभाव के गिरने का वक़्त आ गया है, ठीक तभी उसने इस दुनिया से नाता तोड़ने और राजनीति की दुनिया में कदम रखने का फैसला किया.





दक्षिण मुंबई के मुस्लिम बहुल इलाकों में उसने अपना प्रभाव बढ़ाना शुरू किया. इलाके के लोगों के साथ उठने-बैठने और त्योहारों, शादी-विवाह के मौकों पर लोगों की आर्थिक मदद करने की वजह से जल्दी ही हाजी इन लोगों के बीच काफी लोकप्रिय हो गया. इसके साथ ही उसने ऐसी संस्थाओं की भी मदद करनी शुरू कर दी जो युवाओं को नशे की लत से छुटकारा दिलाने में लगे थे.





80 के दशक में उसने सार्वजानिक सभाएं करना शुरू कर दिया और इसी दौरान उसने दलित नेता 'जोगेंद्र कावडे' के साथ मिलकर 'दलित मुस्लिम सुरक्षा महासंघ' नाम की पार्टी का गठन किया. जुर्म की दुनिया से बनाई काली कमाई से मसीहा बनने का उसका सपना केवल सपना ही रह गया.





अपराध की दुनिया का बेताज बादशाह बनकर भी हाजी मस्तान फिल्म और राजनीति की दुनिया में एक खोटा सिक्का ही साबित हुआ. चमकने (या चलन में आने) की लाख कोशिशों के बाद भी उसे चलन से बाहर होना पड़ा.





शायद यहां मिली असफलता उसके दिल में बैठ गई और उसे दिल की बीमारी हो गई. 1994 में दिल की बीमारी की वजह से ही उसका देहांत हो गया. कहते हैं जिंदगी के अंतिम दिनों में उसे अपने परिवार की काफी चिंता होने लगी थी, जिसकी उसने काफी उपेक्षा की थी.





जुर्म की दुनिया से भले ही एक और नाम मिट गया लेकिन, उसे आगे बढ़ाने के लिए हाजी मस्तान के गैंग में से एक लड़का तैयार हो चूका था जिसे लोग 'दाउद इब्राहीम' के नाम से जानते हैं. अगली कड़ी में मिलिए गुनाहों की दुनिया के इस नए 'सुपारी किलर' से...

Sunday 22 January 2012

कहानी एक साइकिल वाले की, जिस पर बनीं एक नहीं तीन-तीन फिल्में


...'सुपारी किलर' एपिसोड - 4

गुजरात के सबसे बड़े स्मगलर 'सुकुर नारायण बखिया' के संपर्क में आने के बाद 'मस्तान मिर्जा' ने स्मग्लिंग की दुनिया में काफी नाम कमाया और अब मुंबई की काली दुनिया में उसका नाम 'ब्लैंक चेक' बन चुका था. इस नाम की रसीद पर जितने रुपये जिससे चाहे लिए जा सकते थे.


केन्द्रीय मंत्री ने किया अनशन, तब गिरफ्तार हुआ हाजी


जब दिल्ली में सरकार का तख्ता हिला तो इसका असर स्मग्लिंग के काले कारोबार पर भी पड़ा. आपातकाल की कड़ाई ने मस्तान मिर्जा को भी सलाखों के पीछे पहुंचा दिया. हालांकि ऐसा भी कहा जाता है कि जब एक केन्द्रीय मंत्री ने अनशन किया तब जाकर मस्तान मिर्जा को गिरफ्तार किया जा सका. इस बात से मस्तान मिर्जा के प्रभाव का अंदाजा लगाया जा सकता है.


इस वक़्त तक मस्तान भले ही स्मग्लिंग की दुनिया का बड़ा नाम बन चुका था, लेकिन आम लोगों या मुंबई के गुंडों के लिए अभी भी ये नाम अनजान बना हुआ था. इसका बड़ा कारण था कि मस्तान तमिलनाडु का रहने वाला था और उसे 'हिंदी' बोलना नहीं आता था.


जेल में सीखी आम आदमी की जुबान और बन गया 'हाजी मस्तान'


जेल में बिताए गए उसके 18 महीनों ने उसके जबान में रह गई इस कमी को भी पूरा कर दिया. यहां उसने हिंदी बोलना भी सीख लिया. जेल से निकलने के बाद मस्तान का अंदाज और उसका मकसद बदल चुका था.


इसका कारण जेल की सलाखें थीं या कुछ और, कहना मुश्किल है. यहां से निकलने के बाद वह मक्का की यात्रा पर गया और वहां से लौटने के बाद उसने खुद को 'मस्तान मिर्जा' की जगह 'हाजी मस्तान' कहलाना शुरू कर दिया.


कहते हैं जेल से आने के बाद मस्तान ने अपने सारे काले धंधों से नाता तोड़ लिया और फिल्मी दुनिया में कदम रखा. 'मेरे गरीब नवाज' उसकी पहली फिल्म थी, जिसमे उसने पैसा लगाया. कहते हैं यह फिल्म हाजी मस्तान की जिंदगी का ही फिल्मी रूपांतरण थी.


डॉन ने बदल दिया अपना रास्ता क्योंकि...


अपने रुतबे और पैसे के बल पर जल्द ही वह फिल्मी दुनिया के बड़े-बड़े लोगों के साथ उठने-बैठने लगा. एक ओर जहां वह दिलीप कुमार और शशि कपूर के साथ फिल्मों पर चर्चा करता वहीं दूसरी ओर अंडरवर्ल्ड की दुनिया के दो बड़े दादा (करीम लाला और वरदराजन मुदलियार) उसे अपने साथ मीटिंग करने के लिए बुलाते थे.


जल्द ही 'हाजी मस्तान' का नाम देश के बड़े और सफल फिल्म डिस्ट्रीब्युटर्स में गिना जाने लगा. उस जमाने के सफल फिल्मी सितारों धर्मेन्द्र, फिरोज खान, राज कपूर और संजीव कुमार के साथ उसके काफी नजदीकी सम्बन्ध बन चुके थे. कहा ये भी जाता है कि जब सलीम खान फिल्म 'दीवार' बना रहे थे तो उनका और अमिताभ बच्चन का हाजी के घर अक्सर जाना-आना होता था.


दरअसल, फिल्म दीवार एक माफिया पर केन्द्रित फिल्म थी जिसमे 786 नंबर का बिल्ला पहना हुआ व्यक्ति (अमिताभ बच्चन) तब तक जिन्दा रहता है जब तक बिल्ला उसके साथ होता है. इसके अलावा 'मुकद्दर का सिकंदर' और 'once upon a time in mumbai ' के बारे में भी ये माना जाता है कि ये फिल्में भी हाजी मस्तान की जिंदगी से ही प्रभावित थीं.


डॉन और स्मगलर के साथ-साथ हाजी मस्तान एक रोमांटिक इंसान भी था. हाजी के फिल्मी दुनिया में कदम रखने की बड़ी वजह कुछ ख़ास फिल्मी नायिकाओं के प्रति उसका लगाव भी माना जाता है. 'सुपारी किलर' की अगली कड़ी में हम आपको हाजी मस्तान के प्रेम संबंधों और उसकी आलिशान लाइफ स्टाइल से रूबरू कराएंगे.

Tuesday 10 January 2012

'अंडरवर्ल्ड' में जब उभरा ये 'नाम' तो बड़े-बड़े माफियाओं को भी करना पड़ा सलाम!


...'सुपारी किलर' एपिसोड-3

वरदराजन मुदलियार उर्फ़ 'वर्धा भाई' के चेन्नई चले जाने के बाद मुंबई अंडरवर्ल्ड की दुनिया में जो नाम डॉन का पर्याय बन गया वो था 'हाजी मस्तान'.


तमिलनाडू के पनैकुलम में 'हैदर मिर्जा'के घर 1 मार्च 1926 को एक लड़का पैदा हुआ. हैदर मिर्जा एक बेहद मेहनती किसान था लेकिन उसकी गरीबी ने उसे अपनी जमीन और अपना गांव छोड़ने को मजबूर कर दिया.



1934 में वह अपने बेटे के साथ मुंबई आ गया, इस उम्मीद में कि यहां उसे कुछ बेहतर जिंदगी दे पाएगा. कई धंधों में हाथ आजमाने के बाद भी जब उन्हें कोई रास्ता बनते न दिखा तो अंत में मुंबई के बंगाली टोला में उन्होंने साइकिल रिपेयर की एक दुकान खोल ली. इसके बावजूद उनकी रोज की कमाई 5 रूपए से ज्यादा न बढ़ सकी.


सपनों को सच करने के शॉर्टकट ने बनाया स्मगलर


गरीबी के बावजूद हैदर मिर्जा का लड़का 'मस्तान मिर्जा'क्राफोर्ड मार्केट की अपनी दुकान से अपने घर (घेट्टो बस्ती) तक जाने के रास्ते में बनी बड़ी-बड़ी इमारतों, आलिशान होटलों, लंबी-लंबी कारों और मालाबार हिल्स में बनी खूबसूरत कोठियों को निहारता रहता था. उसे उम्मीद थी कि एक न एक दिन उसके पास भी ये सब होगा.


सपनों को सच करने की 'मस्तान' की चाहत जैसे-जैसे बढ़ रही थी, वैसे-वैसे सही रास्तों पर चलने का उसका हौसला कमजोर होता जा रहा था. जा रहे बचपन और आ रही जवानी की दहलीज पर खड़ा 'मस्तान मिर्जा' किसी भी तरह अपनी गरीबी से छुटकारा चाहता था.


कशमकश के इसी दौर में उसे पता चला कि ब्रिटेन से आने वाले सामान को अगर कस्टम ड्यूटी से बचा लिया जाए (या कस्टम टैक्स दिए बिना सामान पार कर दिया जाए) तो उस पर बड़ा मुनाफा कमाया जा सकता है.


उस दौरान फिलिप्स के ट्रांजिस्टर और ब्रांडेड घड़ियों का बेहद क्रेज था. माल चुराने की फिराक में उसकी मुलाकात 'शेख मुहम्मद अली ग़ालिब'नामक व्यक्ति से हुई. जबकि 'ग़ालिब'को भी ऐसे ही एक मजबूर लेकिन होशियार लड़के की तलाश थी.


गलत रास्ते पर बढ़े एक कदम ने खोल दिए हजारों रास्ते


आजादी के तुरंत बाद जब देश में स्मग्लिंग की शुरुवात हो रही थी तब यह बेहद छोटे पैमाने पर होता था. उस वक्त कुछ घड़ियां, सोने के बिस्कुट और एकाध ट्रांजिस्टर सामान के साथ या शरीर में छुपा कर लाना ही स्मग्लिंग कहलाता था.


ग़ालिब ने मस्तान को ये लालच दिया कि अगर वह कुली बन जाए तो अपने कपड़ों और झोले में वो इस तरह के सामान चुरा कर आसानी से बिना कस्टम ड्यूटी के बाहर ला सकता है. इसके बदले में शेख ने उसे अच्छा इनाम भी दिया.


ये धंधा अभी तेजी पकड़ने ही वाला था कि 50 के दशक में दो बड़े बदलाव हुए जिन्हने 'मस्तान मिर्जा' को बड़ा खिलाड़ी बनने में मदद दी. 1950 में 'मोरारजी देसाई' मुंबई प्रेसिडेंसी के मुख्यमंत्री बने और उन्होंने शराब के व्यापार पर प्रतिबन्ध लगा दिया.


जिसका नतीजा हुआ कि स्मगलर्स को इन चीजों की तस्करी का भी मौका मिला, जिसमे काफी मुनाफा था. दूसरी घटना थी 1956 में मस्तान की मुलाकात गुजरात के सबसे बड़े स्मगलर 'सुकूर नारायण बखिया'से होना.


समंदर की लहरों ने फिर बनाया एक 'डॉन'


'बखिया'समुद्र के रास्ते आने वाले सामान की स्मग्लिंग करता था. उसने मस्तान मिर्जा के सामने शर्त रखी कि अगर वो मुंबई में आने वाले उसके सामान को बाहर लाने में उसकी मदद करे तो वो भी 'दमन पोर्ट' पर आने वाले मिर्जा के सामान की सुरक्षित निकासी करा सकता है.


इस धंधे से मस्तान मिर्जा ने काफी पैसे बनाए. लेकिन आपातकाल के दौरान की गई कड़ाई ने न सिर्फ इस धंधे को बड़ा नुकसान पहुँचाया बल्कि, मस्तान मिर्जा पुलिस की गिरफ्त में आ गया.


इस तरह के धंधे में लगे लोगों के लिए जेल जाना आम बात होती है, लेकिन मस्तान मिर्जा का जेल जाना उसकी जिंदगी का एक ऐसा पड़ाव बना जिसने उसकी जिंदगी को हमेशा के लिए बदल कर रख दिया...


जेल में 18 महीने रहने के बाद जब मस्तान बाहर निकला, तो अब वह केवल मस्तान मिर्जा नहीं रहा बल्कि, 'हाजी मस्तान'बन चुक था. नाम के साथ अब उसकी जिंदगी के सपने और मंजिलें भी बदल चुकीं थीं....'सुपारी किलर' की अगली कड़ी में हम आपको रुबरु कराएंगे 'हाजी मस्तान' से.


अंडरवर्ल्ड की दुनिया के ऐसे ही दिलचस्प और अनछुए पहलुओं को जानने के लिए क्लिक करें

http://www.bhaskar.com/maharashtra/

हिंदुस्तान के पहले डॉन की सच्चाई उसकी पत्नी की जुबानी


...'सुपारी किलर' एपिसोड-2

...'सुपारी किलर' की पिछली कड़ी में आपने पढ़ा कि कैसे वरदराजन मुदलियार ने मुंबई की काली दुनिया (अंडरवर्ल्ड) पर अपना शिकंजा कसा लेकिन उसके दबदबे को पुलिस से लेकर उसके बाकी दुश्मनों ने ख़त्म करने की कोशिश की. मजबूर होकर वर्धा भाई को मुंबई छोड़ना पड़ा और उसकी जगह जो नाम तेजी से अंडरवर्ल्ड की दुनिया में छा गया वो था 'हाजी मस्तान'.


साइकिल रिपेयर की दुकान चलाने वाले से मुंबई के डॉन बनने की उसकी कहानी ने सिर्फ आम लोगों को प्रभावित किया बल्कि, फ़िल्मी दुनिया ने भी इस नाम और उसके काम को लोकप्रियता दिलाई. कहते हैं हाजी मस्तान के फ़िल्मी दुनिया से लेकर राजनीति के धुरंधरों से भी ताल्लुकात थे.



हाजी मस्तान पर बनने वाली पहली फिल्म 'दीवार' थी जिसमे अमिताभ बच्चन और शशि कपूर ने मुख्य भूमिका अदा की. इसके अलावा 'मुकद्दर का सिकंदर' और 'once upon a time in mumbai' जैसी फिल्मो ने भी लोगों में इस डॉन के प्रति दिलचस्पी पैदा की.



इस कड़ी में हम आपको एक ऐसा वीडियो दिखा रहे हैं जिसमे हाजी मस्तान की पत्नी अपनी व्यथा सुना रही है. गौरतलब है कि हाजी मस्तान ही वह शख्स था जिसके लिए शायद सबसे पहले 'डॉन' शब्द का इस्तेमाल हुआ. उसके लिए इस शब्द को गढ़ने में फ़िल्मी दुनिया का भी कहीं न कहीं बड़ा हाथ है.


'सुपारी किलर'की अगली कड़ी में हम आपको न सिर्फ हाजी मस्तान के फ़िल्मी दुनिया से रिश्तों की कहानी कहेंगे बल्कि इस सच्चाई से भी रुबरू कराएंगे कि कैसे इस 'डॉन' ने राजनीति में अपने कदम रखे और कौन बना उसका राजनितिक गुरु...

इस शख्स ने रखा था मुंबई में अंडरवर्ल्ड की नींव का पहला पत्थर...


...'सुपारी किलर' एपिसोड-1


नया भारत या कहें आजाद भारत जब अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश कर रहा था, लगभग उसी वक्त देश के युवाओं के लिए एक शहर उनके सपनो में अपनी जड़े जमा रहा था. इस शहर में पसरा समंदर हर नौजवान को जैसे ये यकीन दिला रहा था कि उसकी किस्मत पर कितना भी बड़ा ताला क्यों न लगा हो, इस महासागर की गहराई में उसे खोलने वाली हर चाबी मौजूद है. किसी भी सपने को सच कर दिखाने की इसी जादूगरी ने ही शायद इस शहर मुंबई को 'मायानगरी' का तमगा दिला दिया.



'अयूब लाला' था पहला बड़ा गैम्बलर






मुंबई अपनी रंगीनियत और चकाचौंध से लेकर अपने दामन में समेटे काले धंधों (अंडरवर्ल्ड) की वजह से भी मशहूर (या शायद बदनाम भी) होती जा रही थी. माना जाता है कि इस शहर में संगठित अपराध की शुरुआत गैम्बलिंग और नशीले पदार्थों की तस्करी से हुई जिसमे पहला बड़ा नाम पठान अयूब खान पठान उर्फ़ 'अयूब लाला'का था. कहते हैं अफगानिस्तान से आकर मुंबई में बसे लगभग 13000 अफगानियों के एक संगठन 'पख्तून जिरगा-ए-हिंद' का संस्थापक प्रमुख भी अयूब लाला ही था.



मुंबई में चलने वाले तमाम गैम्बलिंग क्लब जिसे यहां के मारवाड़ी, मराठी या मुसलमान चलाते थे, उन सब पर अयूब लाला का नियंत्रण था. अयूब भले ही माफिया के तौर पर बदनाम था, लेकिन उसके बारे में एक दिलचस्प बात कही जाती है कि उसने कभी किसी को एक तमाचा भी नहीं मारा. अपने बेटे कश्मीरी लाला की हत्या के बाद उसने मुंबई छोड़ने का फैसला कर लिया और 40 के दशक में अपना सारा कारोबार करीम लाला को सौंप दिया जो डोंगरी (साउथ मुंबई) में शराब का व्यापार करता था.



'वर्धाभाई' ने चलाई थी अंडरवर्ल्ड के दुनिया की पहली हुकूमत!






मुंबई (उस वक्त के बम्बई) में भले ही संगठित अपराध की शुरुआत हो चुकी थी, लेकिन इस दुनिया के बेताज बादशाह के तौर पर जिस एक नाम ने आने वाले लगभग दो दशकों तक (1960-80) राज किया वो नाम था 'वरदराजन मुदलियार' का. मुदलियार के समय में ही करीम लाला और हाजी मस्तान भी मुंबई में सक्रीय थे लेकिन, इन तीनों में मुदलियार की पहचान गरीबों के बीच एक मसीहा की बन चुकी थी. वरदराजन की अपनी एक समानान्तर न्याय-व्यवस्था चलती थी जिसमे वह अपने लोगों के लिए फैसले करता था.



'वर्धाभाई' के नाम मशहूर वरदराजन मुदलियार पैदा भले ही तमिलनाडु के 'तूतीकोरिन' (1926) में हुआ था, लेकिन उसने रोजी-रोटी की शुरुआत बम्बई के विक्टोरिया टर्मिनल स्टेशन से एक कुली के तौर पर की. जल्दी ही उसने जुएखोरी और नशीले पदार्थों की तस्करी के धंधे में अपने कदम रखे. यहां उसका दबदबा तेजी से बढ़ने लगा और जल्द ही उसने गोदी में चोरी (डॉक थेफ्ट), कान्ट्रैक्ट कीलिंग, और स्मग्लिंग का काम भी शुरू कर दिया.






एक पुलिसवाले ने हिला कर रख दी थी इस माफिया की सत्ता






80 के दशक में वह मुंबई की काली दुनिया (अंडरवर्ल्ड ) का सबसे बड़ा नाम बन चुका था. अपने इलाके (माटुंगा) में हर साल वह बड़े ही भव्य तरीके से गणेश पूजा का आयोजन भी करवाता था. लेकिन इसी समय मुंबई पुलिस के एक अधिकारी 'वाई सी पवार' ने मुदलियार को अपना टार्गेट बनाया और एक-एक कर उसके सभी गुर्गों को या तो मार गिराया या जेल में डाल दिया. अपनी जमीन खिसकती देख मुदलियार ने मुंबई छोड़ने का फैसला कर लिया. यहां से निकल कर उसने चेन्नई में शरण ली जहां 62 साल की उम्र (1988) में उसकी मौत हो गई.






कहते हैं उसने अपने अंतिम समय में 'बड़ा राजन' नाम से मशहूर गैंगेस्टर 'राजन नायर' से मदद मांगी. मुदलियार के जाने से अंडरवर्ल्ड की दुनिया के सरताज की जगह खाली हो गई थी जिसपर जल्द ही हाजी मस्तान ने कब्ज़ा जमा लिया.



वरदराजन की जिंदगी उसके मौत के बाद तब और भी दिलचस्प बन गई जब दक्षिण के मशहूर फिल्म निर्देशक मणिरत्नम ने उसपर 'नायकम' नाम से फिल्म बनाई जिसमें कमल हासन ने मुख्य भूमिका अदा की. फिरोज खान ने 1988 में इसी पात्र को ध्यान में रखते हुए 'दयावान' का निर्माण किया.






'सुपारी किलर' की अगली श्रृंखला में जानिए कैसे हाजी मस्तान बना अंडरवर्ल्ड का पहला डॉन और किसने ख़त्म किया उसका साम्राज्य...