Thursday 30 August 2018

क्या मै तुम्हें प्रवोक करती हूं...

बरसात का मौसम अपने आखिरी दिनों में था। दस दिन चलने वाला गणेशोत्सव खत्म हो रहा था और दशहरे की तैयारी शुरू हो चुकी थी। सड़क किनारे बिना श्रृंगार और कपड़ों के खड़ी सैकड़ों दुर्गा प्रतिमाओं के ढांचे को कारीगर अंतिम रूप दे रहे थे। एक कारीगर दुर्गा प्रतिमा की आंख को बड़ी सावधानी से आकार दे रहा था। जय एकटक उसे ही देख रहा था। तभी अचानक ब्रेक लगा और आॅटो रुक गई। सड़क पर खड़े एक बुजूर्ग ने जय से कहा- बेटा थोड़ा खिसक जाओगे क्या? आवाज सुनते ही जय की अचानक जैसे नींद टूट गई हो। उसने मुस्कुराते हुए बुजूर्ग की ओर देखा और दाईं ओर खिसकते हुए कहा- जी, बैठिए। आॅटो चल दी। जय फिर से उन दुर्गा प्रतिमाओं को देखने लगा। एक-एक कर सारी प्रतिमाएं ओझल हो गईं। जय गुमसुम था क्योंकि, रह-रह कर नेहा का वही सवाल उसे याद आता- क्या मैं तुम्हें प्रवोक करती हूं? उस वक्त जय को कुछ समझ में नहीं आया था इसलिए, उसने बस इतना ही कहा- नहीं... बिल्कुल नहीं। चाय के लिए जाते वक्त तक तो सबकुछ ठीक ही लग रहा था लेकिन, दुकान पर नेहा की कही एक बात ने जय को परेशान कर दिया। रोज की तरह आज भी दोनों दोपहर की चाय पीने आए थे। अपनी आदतों से मजबूर जय बार-बार नेहा को छेड़े जा रहा था। कभी उसके बाजुओं में चूटी काट लेता तो कभी उसकी नाक पकड़ने की कोशिश करता। नेहा आज कोई विरोध नहीं कर रही थी। जल्द ही जय को समझ में आ गया कि कुछ गड़बड़ है। जय ने गंभीर होते हुए पूछा- क्या हुआ... कुछ बात है क्या? नेहा- संडे को तुम मुझे अपना आधा घंटा दे सकते हो क्या... तुमसे कुछ बात करनी है। जय- हां.... लेकिन इसमें पूछने वाली क्या बात है, और ऐसी क्या बात है जिसके लिए तुम्हें संडे तक का इंतजार करना पड़ेगा? अभी क्यों नही बताती? नेहा- नहीं, अभी नहीं बता सकती। उसके लिए फुर्सत और एकांत चाहिए। आमतौर पर नेहा गंभीर नहीं होती इसलिए, उसकी इस बात ने जय को परेशान कर दिया। उसने फिर नेहा से कहा- देखो, जो भी है तुम अभी कहो। जय बार-बार नेहा से अपनी बात कहने की जिद करता रहा लेकिन, नेहा अड़ी रही कि वो संडे को ही बात करेगी। इस बीच जय की बेचैनी देख नेहा हंस पडी और बोली- इतना परेशान क्यों हो रहे हो। कुछ गलत किया है क्या, जो इतना घबरा रहे हो... चोर की दाढ़ी में तिनका। ये कह नेहा धीरे से मुस्करा दी। जय को ये बात चुभ गई। चाय खत्म हो चुकी थी और उतरती दोपहर की तेज किरणें सीधे नेहा के चेहरे पर पड़ रही थीं। गर्मी से उसका चेहरा लाल हो रहा था। उसने जय से चलने को कहा तो जय अड़ गया। जय- देखो जब तक तुम कहोगी नहीं, मैं यहां से जाने वाला नहीं हूं... तुम्हें बताना पड़ेगा कि आखिर बात क्या है? नेहा- बात मेरे और तुम्हारे रिश्ते को लेकर है। इतना सुनते ही जय का माथा घूम गया। वो समझ नहीं पा रहा था कि आखिर दोनों के बीच रिश्ते को लेकर ऐसी कौन सी बात है जो नेहा को परेशान कर रही है। जय- देखो, जो भी है लेकिन तुम्हें वो बात अभी बतानी होगी। मैं संडे तक इंतजार नहीं कर सकता। नेहा- मैं अभी नहीं बता सकती, मुझे सोचने के लिए कुछ वक्त चाहिए। जय- लेकिन मैं उस वक्त तक इंतजार नहीं कर सकता। मैं तुम्हारी आदत जानता हूं। तुम सबकुछ सोच चुकी हो लेकिन उसे टाल रही हो ताकि मैं तुम्हें कहने को मजबूर करूं इसलिए, अच्छा है कि तुम अभी ही सबकुछ कह दो। नेहा- पागल मत बनो, अभी चलो यहां से। गर्मी से मेरा दम घुट रहा है। लंच करने चलेंगे तो बता दूंगी... तब तक सब्र रख लो। जय समझ गया कि नेहा ने कोई गहरी बात अपने मन में दबा रखी है लेकिन, उसे बुरा न लग जाए इसलिए कहने से बच रही है। जय ने उस वक्त नेहा की बात मान ली और दोनों चाय की दुकान से चल दिए। लंच के दौरान नेहा बिल्कुल सामान्य थी। जय भी नाॅर्मल दिखने की पूरी कोशिश कर रहा था लेकिन, उसके दिमाग में बस यही उधेड़बुन चल रही थी कि आखिर ऐसी कौन सी बात है जिसे कहने के लिए नेहा को अलग से समय चाहिए। खाना खत्म करने के बाद दोनों छत पर टहलने लगे। कुछ मिनटों तक दोनों के बीच कोई बात नहीं हुई लेकिन जय से रहा नहीं गया। उसने नेहा को रोकते हुए कहा- क्या बात कहने वाली थी तुम...? जय का सवाल सुन नेहा रुक गई। जय उसके सामने खड़ा हो गया। नेहा ने कुछ सोचा और जय को देखते हुए कहा- देखो, मैं नहीं चाहती कि लोग मेरे कैरेक्टर पर सवाल उठाएं। इसलिए क्या ये संभव नहीं है कि हम साथ में घूमना फिरना कम कर दें। जय- तो सिर्फ ये बात कहने के लिए तुम्हें संडे को अलग से समय चाहिए? नेहा- नहीं, एक बात और है... क्या मैं तुम्हें प्रवोक करती हूं? इस सवाल ने जय को हिला दिया। लेकिन उसने तुरंत खुद को संभाला और बिल्कुल सामान्य होते हुए जवाब दिया- नहीं, लेकिन तुम्हें ऐसा क्यों लगता है? नेहा की आंख नम हो चुकी थी। वो भी खुद को संभालने की जद्दोजहद कर रही थी। अपनी नजर झुकाते हुए उसने कहा- मैं नहीं चाहती कि हम-दोनों को लेकर लोग इधर-उधर की बातें करें। मुझे ये बात बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं कि कोई मेरे चरित्र पर उंगली उठाए। अब तक जय खुद को संभाल चुका था। नेहा की नम आंख देख उसे अंदाजा हो गया था कि वो अंदर ही अंदर कितनी बेचैन है। उसने नेहा से पूछा- क्या तुम्हें ऐसा लगता है कि तुम कुछ गलत कर रही हो। नेहा- नहीं... जय- मुझे भी नहीं लगता। लेकिन अगर तुम्हें परेशानी है तो हम अपने रास्ते आज से और यहीं से अलग कर लेते हैं। लेकिन ये फैसला मैं इसलिए नहीं कर रहा हूं क्योंकि, मुझे दुनियावालों से किसी कैरेक्टर सर्टिफिकेट की जरूरत है। बल्कि इसलिए कर रहा हूं क्योंकि, तुम्हारे लिए ये सर्टिफिकेट इंसानी रिश्ते और भावनाओं से बढ़कर है। नेहा अब बिल्कुल शांत हो चुकी थी। उसकी आंखों में कुछ बातें तैर रही थीं लेकिन जुबान उन लफ्जों का बोझ उठाने में नाकाम थे। वो लगातार जमीन की ओर देखे जा रही थी। जय भी नेहा की ओर नहीं देख रहा था। वो बस अपनी बातें कहे जा रहा था जैसे वो नेहा से नहंी दुनिया वालों से कुछ कहा रहा हो। जय- तुम जानती हो कि मैं किसी के सर्टिफिकेट का मोहताज कभी नहीं रहा। मैंने अपने फैसले खुद ही लिए और उनके नतीजे चाहे अच्छे रहे हों या बुरे उनके लिए सिर्फ खुद को जिम्मेदार मानता हूं। मैं नहीं जानता कि तुम मेरे बारे में क्या सोचती हो लेकिन, मैं जो कुछ भी कर रहा हूं पूरे होश में और समझ बूझ कर कर रहा हूं। और ये भी जान लो कि ये दुनिया तो क्या तुम्हारे कुछ कहने के बाद भी मैं अपनी सोच और राह बदल नहीं सकता। मुझे फिक्र है तो सिर्फ तुम्हारी क्योंकि, मेरे लिए तुम कीमती हो ये दुनिया नहीं... ....................................................................................................................................................
अगला दिन:

दिल सुलगता है तेरे सर्द रवैये से मेरा 
देख इस बर्फ ने क्या आग लगा रखी है 
आइना देख ज़रा क्या मैं गलत कहता हूँ 
तूने खुद से भी कोई बात छुपा रखी है

कल नेहा की नाराजगी देख जय ने तय किया कि आज वो किसी भी बात पर बहस या तर्क-वितर्क नहीं करेगा।
नेहा के आंसुओं ने उसे परेशान कर दिया था। जय जानता था कि बाहर से वो कितनी ही मॉडर्न दिखने की कोशिश क्यों न करे,

असल में उसके अंदर आज भी वो लड़की पूरी तरह जिंदा है जो छोटे शहर से दिल्ली आई थी ताकि, अपने सपनों को पंख लगा सके।
जय ने तय किया कि आज वो नेहा से बस इतना भर पूछेगा कि आखिर कल उसकी नाराजगी की वजह क्या थी?
जय- अभी भी नाराज हो?
नेहा- नहीं, नाराज तो नहीं हूं लेकिन, अपनी बात पर कायम हूं। देखो, ये हो सकता है कि 12वीं के बाद आईसीडब्लू करने या अपने पसंदीदा कॉलेज में पढ़ने के लिए अगर मैं अपने पेरेंट्स को कनविंस करने की कोशिश करती तो शायद आज मैं कुछ और या कहीं और होती।
रही बात राहुल की, तो उससे शादी की बात मैंने इसलिए टाल दी क्योंकि मुझे लगा था कि बहुत बड़ा बवाल खड़ा हो जाएगा और इससे मेरे मां-बाप को बहुत दुख झेलना पड़ेगा। बस, इसलिए मैंने उसे मना कर दिया। (राहुल उसका पहला प्यार था।)
जय- किस तरह का बवाल?
नेहा- तुम नहीं जानते... एक छोटी सी बात पर ही मैंने बहुत बड़ा बवाल झेला है और सजा भी भुगती है। मैं उसे दोहराना नहीं चाहती थी। बस इसलिए, राहुल को इनकार कर दिया।
जय इस बात की गहराई में जाना चाहता था लेकिन, आज वो नेहा को ‌किसी बात से दुखी नहीं करना चाहता था, इसलिए चुप रहा। उसने बस इतना पूछा- कैसा बवाल?
नेहा- उस साल मेरी होली बहुत खराब बीती थी। लोग होली खेल रहे थे और मैं घर पर अकेली थी। घरवाले कहीं गए हुए थे। तभी देविका का फोन आया कि वो और राहुल अकेले ही हैं। मैंने उनसे कह दिया कि मेरे घर आ जाओ, तीनों मिलकर होली मनाएंगे।
किसी ने ये बात घरवालों को बता दी। शाम को घर आते ही वो मेरे ऊपर फायर हो गए। मम्मी-पापा को बताया गया कि मैं घर पर अकेली थी और होली खेलने के लिए मैंने अपने दोस्तों को घर बुलाया जिसमें एक लड़का भी था।
वाट्सऐप, फेसबुक के जरिए ये बात सारे रिश्तेदारों-नातेदारों को भी बताई गई। सबने मेरा मजाक उड़ाना शुरु कर दिया। कहने लगे कि- नेहा, सुना है बहुत उड़ रही हो आजकल तुम?
नेहा की आंखों में अब तक इतनी नमी जमा हो चुकी थी जिसे उसकी आंखें संभाल नहीं पाईं और वो उसके गालों से होते हुए गले तक पहुंच गई।
जय को अंदाजा नहीं था कि ये सवाल नेहा को इतने गहरे तक छू जाएगा। नेहा के बहते आंसुओं ने जय की जुबान पर जैसे ताला लगा दिया।
ऐसा नहीं था कि आज पहली बार वो जय के सामने रोई थी लेकिन, न जाने क्यों आज जय का मन कर रहा था कि उसे चुप करा दे। उसके आंसुओं को पोछ दे। लेकिन चाह कर भी वो अपने हाथ नेहा की ओर नहीं बढ़ा सका।
जय बिलकुल शांत था। भले ही उसकी आंखों में नमी नहीं थी, लेकिन अंदर कहीं कुछ बुरी तरह रिस रहा था। जय बस एकटक नेहा को देखता रहा।
रुंधे गले से नेहा ने कहा- मुझे इस बात का दुख नहीं कि मेरा मजाक उड़ाया गया। मुझे बुरा लगा क्योंकि मेरी एक हरकत की वजह से मेरे पेरेंट्स को शर्मिंदगी उठानी पड़ी।
इस एक लाइन के बाद नेहा की आंखों से जैसे दरिया फूट पड़ा। ऐसा लगा जैसे वो बेतहासा रोना चाहती है।
हमारा समाज और नात-रिश्तेदार संबंधों के नाम पर इंसान को ऐसे ही यातना देते हैं। ऐसी यातना तो अपराधियों को भी नहीं दी जाती, जहां सजा के साथ ये शर्त भी हो कि अगर आंसू निकले तो इससे भी ज्यादा तड़पाए जाओगे।

नेहा की तड़प को उसके आंसुओं से नहीं समझा जा सकता था। जरूरी नहीं कि हमेशा भावनाएं ही शब्दों से ज्यादा कहते हों, कई बार शब्द भावनाओं से भी आगे निकल जाते हैं।
नेहा की आंखों ने उसके आंसुओं के सैलाब पर तो बांध बना दिया लेकिन, उन्हें शब्दों में बहने से नहीं रोक पाई। होली के दिन हुई एक गलती के कारण शादी के पहले एक बार भी नेहा अपने फियांसे से नहीं मिल पाई। उसे डर था कि कहीं इस बात का भी बतंगड़ न बन जाए।

उसके अपनों ने ही उसे ऐसी बेड़ियों मेंं जकड़ दिया कि अगले छह महीने तक वो आजाद तो रही लेकिन, खुद को किसी कैदी से ज्यादा बंदिशों में जकड़ा पाया।
नेहा के इस दर्द को सिर्फ उस पल में जाकर ही महसूस किया जा सकता है, इस पल में उसे बस सुना और समझा जा सकता है।