क्या था कह नहीं सकता,
क्यूँ था कह नहीं सकता,
कैसे हुआ कह नहीं सकता,
कब हुआ कह नहीं सकता,
क्यूँ हुआ कह नहीं सकता,
जो हुआ कह नहीं सकता,
किसने किया कह नहीं सकता,
कहते हैं जो होता है अच्छा होता है,
जो हुआ अच्छा हुआ,
जो होगा अच्छा होगा,
फिर क्यूँ अच्छा नहीं लगता,
जो हुआ या जो हो रहा है मेरे साथ,
सोचता था खूब पढूंगा,
खूब बड़े काम करूँगा,
जरुरत पड़ी तो जान भी दे दूंगा,
खून-पसीना एक कर दूंगा,
ऐसा नहीं है कि परेशानियाँ नहीं आई कभी,
ऐसा भी नहीं है कि दुशवारियां नहीं आई,
फिर भी करता रहा जो कर सका,
लड़ता रहा जहाँ तक लड़ सका।
अब कभी-कभी लगने लगता है कि,
शायद अब न लड़ सकूँगा,
शायद अब न जीत पाउँगा,
शायद अब न दौड़ पाउँगा,
ये अहसास मुझे अक्सर दूसरों को देख कर होता है,
उन्हें, जिनके पास पिता का साया है,
जिनके पास माँ का प्यार है,
जिनके पास अपना घर है,
जिनके पास खर्च करने के लिए पैसे हैं,
जिनके पास अच्छे कपडे हैं,
जो पढने के लिए किताबें खरीद सकते हैं,
जो जरुरत कि हर चीज खरीद सकते हैं।
मै सहम जाता हूँ जब खुद को उनके बीच पाता हूँ,
सोच में पड़ जाता हूँ, कैसे पहुँच गया इनके बराबर?
जबकि मेरे पास ना तो पिता हैं, ना उनका सहारा,
न घर है, न खर्चने के पैसे, किताब तो क्या कभी-कभी
पेन की रिफिल खरीदने के भी पैसे नहीं होते जेब में,
मेरी तंगहाली मेरे सहपाठियों से मुझे दूर कर देती है,
क्यूँकी मेरे कपड़े थोड़े भद्दे होते हैं,
वो लेटेस्ट ट्रेंड से मैच नहीं खाते,
मै हफ़्तों एक ही जोड़े में गुज़ार देता हूँ,
उन्हें लगता है मै बहुत गन्दगी से रहता हूँ,
उन्हें लोग बड़ी इज्ज़त देते हैं, मुझे अक्सर अनदेखा कर देते हैं,
वो वीकेंड पर पित्जा खाने की बात करते हैं तो मै सकपका जाता हूँ,
इन सब के कारण मै भीड़ में भी तनहा महसूस करता हूँ,
उन्हें मुझ पर हँसता हुआ देख, खुद भी हंसने का दिखावा करता हूँ।
लोग कहते हैं दिखावे पर मत जाओ,
लेकिन आज तो वही बिकता है जो दिखता है,
मै उनके बीच अक्सर अनदेखा कर दिया जाता हूँ,
इसलिए कभी-कभी लगने लगता है कि,
शायद अब न लड़ सकूँगा
शायद अब न जीत सकूँगा ...
संजीव श्रीवास्तव
1 comment:
आत्मविश्वास जगाईये, वही जीवन का मील मंत्र है दिखावा तो क्षणभंगुर है, उसकी चिन्ता न करें...
शुभकामनाएँ..अच्छे भाव उकेरे हैं रचना में.
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