Thursday, 21 January 2010

अब नींद चैन की आती है !


जब
मै जाड़ों में घर पर होता था,
दालान में धूप सेंकता था,
अक्सर वहीँ चारपाई पे ही सो भी जाता था,
मेरी माँ मुझे अपना पसंदीदा साल उढ़ा देती थी,
उसे कोई और मांगे तो डांट सुना देती थी,

यहाँ धूप तो होती है उसी सूरज से मगर,
यहाँ वैसी नींद नहीं आती है,
जब कभी यहाँ झपकी लगती है ,
माँ के साल की याद आती है

इस बार जब मै घर पे गया,
और लौटने लगा जब घर से यहाँ,
माँ ने खाना बाँध दिया,और करने लगी बिदा मुझे,
मैने ठण्ड लगने का बहाना किया,
और वही पुराना साल मांग लिया

अब दूर हूँ घर से और माँ से भी,
पर सीने पर साल रखता हूँ,

रातों में रजाई के अन्दर,
जैसे
माँ से लिपटा रहता हूँ,
ठण्ड तो क्या जायेगी उस पुराने साल से लेकिन,
अब नींद चैन की आती है

संजीव श्रीवास्तव

1 comment:

वन्दना अवस्थी दुबे said...

क्या बात है. शॉल के रूप में मां का स्नेह ही तो ओढ लेते हैं आप.