Friday, 22 January 2010

क्यूँ पहुँच गए इस राह पे हम?

जीवन को समझना आसां नहीं,
किसी राह पर चलना आसां नहीं,
कह सकता हूं ये मैं क्योंकि, कई राहों से होकर गुजरा हूं
किसी राह में क्या दुश्वारी है, ये जाना जब एक ठोकर लगी।

बचपन में घर वालों ने कहा,
जवानी में जग वालों ने कहा,
अब चलता हूँ बस चलने के लिए,
उन सबको खुश रखने के लिए।

ऐसी भी कई राहें हैं जो, अब अक्सर याद आती हैं हमें
उन राहों पर थे साथी कई, वो सफ़र सुहाना लगता था
वो साथी आगे निकल गए, पर मैं अभी भी चलता हूँ
ये राह कठिन तब लगती है, वो साथी जब याद आते हैं

अक्सर ये सवाल परेशां करता है,
क्यूँ पहुँच गए इस राह पे हम,
ये तो हमारी राह न थी,
इसपे न तो कोई साथी बना,
न ये सफ़र सुहाना लगता है,

क्यूँ चुना ये सफ़र अब लगता है,
थी फिक्र हमें पैसों की बहुत,
था बेगारी का डर भी हमें,
थी उम्र निकलने की भी फिकर,

क्या करूँ घर में बहन कुंवारी थी, भाई की गंभीर बीमारी थी
अब मज़बूरी चलाती है, और हमको चलना पड़ता है
गर यूं हीं चला इन राहों पर, तो ये राहें शायद बच जाएं
गुर्बत तो फिर भी सह लेंगे, पर शायद हम न बच पाएं।

मुश्किल है इन राहों पर चलना क्योंकि,
जिंदा दिखता है इंसा बस, कोई रूह नहीं न उसमें जिगर
इसीलिए इन राहों पर, कोई साथी नया नहीं बनता है
अब समझा ये सफ़र हमें, सुहाना क्यूँ नहीं लगता है।

संजीव श्रीवास्तव

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