Tuesday 15 November 2011

इम्तियाज़ अली की गंभीरता और फेसबुकिया गपशप


प्रीव्यू, रिव्यू और फेसबुक पर लोगों के कमेंट पढ़ने के बाद मैंने ये फिल्म देखी. फिल्म की स्क्रिप्ट से लेकर सिनेमेटोग्राफी और म्यूजिक पर सैकड़ों आर्टिकल तो आपको इंटरनेट पर ही पढ़ने को मिल जाएंगे और वो भी उन लोगों के जिनका नाम उनके किसी भी काम पर भारी पड़ता है.

हालांकि उनमे से किसी एक का भी नाम मुझे याद नहीं है, नहीं तो मै यहां पर लिखता जरुर. कम से कम आपको ये एहसास दिलाने की पूरी कोशिश करता कि मै भले ही इनके जैसा ब्रांड नहीं बन सका हूँ लेकिन इन्हें जानता और पढता जरुर हूँ. शायद इससे आपको मेरे 'टेस्ट' और मेरी 'क्लास' का अंदाजा लग जाता. खैर, इतना पढ़ने के बाद आप मेरा क्लास तो समझ ही गए होंगे.

सो, अगर आप मेरे क्लास से मैच करते हैं तभी आगे बढें वरना, इससे पहले कि आप पूरा पढ़ने के बाद फेसबुक पर मेरे मित्रों जैसा कमेंट करें और वहां से मुझे पता चले कि मै 'क्लासलेस' हूँ. प्लीज आप मुझे यहीं छोड़ दें!

अगर अभी भी आप पढ़ रहे हैं तो जाहिर है कि आपकी क्लास भी मुझ से ज्यादा बेहतर नहीं है. तो फिर 'क्लासमेट' से क्या शर्माना, जो भी कहना है खुल कर कहता हूँ...

'रॉकस्टार' फिल्म देखते हुए मुझे लगा कि आज के जमाने में अगर आपको कोई गंभीर बात कहनी है तो जितना हो सके उसमे कॉमेडी घुसाओ. तब हो सकता है कि लोग तुम्हारी बात सुन लें, वरना, अगर गंभीर बात को तुमने गंभीरता से कहा तो पक्का समझो कि सामने नहीं तो पीछे मुड़ते ही लोग तुमपर कस कर हंसने वाले हैं.

खासकर के किसी 'इंटैलिजेंट टाइप' के आदमी के सामने तो कभी भी कोई बात गंभीरता से कहना ही मत. क्योंकि गंभीरता यानि seriousness एक class होता है और क्लास सिर्फ इंटैलिजेंट टाइप के लोगों में होता है. हम जैसे फर्जी ब्लॉगरों या फेसबुकियों में नहीं.

और सही भी है भाई. जब तक तुम किसी बड़े अखबार या मैग्जीन में नहीं छपे तब तक कोई भला कैसे मान ले कि तुम भी कोई गंभीर बात कर सकते हो? और ऐसा भी नहीं है कि तुम किसी बड़ी हस्ती से ताल्लुक रखते हो या उनके खानदान से हो. अगर ऐसा होता तो जेनेटिक तौर (वंशानुगत आधार ) पर हममे गंभीरता का तत्व हो सकता था. लेकिन चूंकि, हमारे में इनमे से कोई लक्षण विद्यमान नहीं है सो, एक बात तो पक्की है कि हममे गंभीरता नामक कोई रोग नहीं है.

सो, इस फिल्म (रॉकस्टार) पर हम कोई गंभीर टिप्पणी करें और फेसबुक पर ही हमें क्लासलेस होने का अवार्ड मिल जाए इतना बड़ा सदमा सहकर 'रांझा'(फिल्म की नायिका) की तरह हम 'कोमा' में जाने का रिस्क नहीं उठा सकते. क्योंकि रांझा तो बड़े घर वाली थी और वो भी प्राग जैसे विदेश में थी, तो उसके घर वलों ने तो उसे किसी हाई-फाई अस्पताल के आईसीयू में भर्ती करा दिया. लेकिन अगर हमें आईसीयू में जाना पड़ा तो आपको तो पता ही है कि अपनी क्लास के मुताबिक हमें किसी सरकारी अस्पताल का आईसीयू ही नसीब होगा. जहाँ ज्यादातर मरीज या तो लावारिस होते हैं या ऐसे जिनके घर वालों के पास इतने पैसे भी नहीं होते कि फ्री में मिली दवा से पहले मरीज को ढंग का नाश्ता भी करा सकें.

चूंकि मेरा पाला ऐसे अस्पतालों से पड़ा है तो एक राज की बात और बताता चलूं कि इन अस्पतालों में डॉक्टर मरीज को बचाने की जगह इस फिराक में ज्यादा रहते हैं कि वो जल्दी से मरे. क्योंकि उन्हें पता होता है कि इस हालत के बाद अगर वो बच गया तो उसकी जिंदगी मौत से भी ज्यादा बदतर हो जाएगी.

सो, इम्तियाज अली साहब इस फिल्म के जरिए शायद कोई गंभीर बात कहना चाहते थे. इसीलिए उन्होंने फिल्म की शुरुआत कॉमेडी से की है. शायद उनका इरादा अपने दोनों तीर निशाने पर बिठाने का था. एक तो इंटैलिजेंट टाइप के लोगों को बुरा भी न लगे और दूसरा हमारे जैसे क्लासलेस टाइप के लोगों का मनोरंजन भी हो जाए.

इंटरवल के पहले तक मुझे ये बात समझ में नहीं आई कि इसके बावजूद इंटैलिजेंट टाइप के लोगों ने फिल्म को 'गा...' क्यों दी है और उसे फेसबुक पर जाहिर भी कर दिया है?

दरअसल, उनके गुस्से की वजह फिल्म का अगला हिस्सा है जहां पर इम्तियाज साहब ने गलती की है. उन्होंने आगे की बात को बेहद गंभीरता से कह दिया है. क्योंकि जब तक झाला भाई (कॉलेज कैंटीन का मालिक) जे जे को यह समझाते हैं कि बड़ा कलाकार बनने के लिए 'पेन' का होना जरुरी है तब तक तो बात सही लगती है लेकिन, जब पेन की वजह से जे जे जैसा क्लासलेस आदमी 'जॉर्डन' जैसा रॉकस्टार बनने लगता है तो इंटैलिजेंट टाइप के लोगों को गुस्सा आना और उसे फेसबुक पर जाहिर करना लाजिमी हो जाता है.

यानि आप लोगों को ये दिखाकर बरगलाना चाह रहे हैं कि प्यार में इतनी ताकत होती है कि जे जे जैसा ठेठ जाट भी जॉर्डन बन सकता है? बात अगर यहीं खत्म हो जाती तो भी ठीक था. अली साहब ने बात को और गंभीर बना दिया, और दिखा दिया कि इतना नाम,पैसा कमाने के बाद भी जे जे जैसा आदमी पगलाता नहीं है. बल्कि, अभी भी उसे उस प्यार की तलाश है जो जॉर्डन बनने के पहले उसे घर वालों से या रांझा से मिलता था.

भाई ये मामला तो साहब, गजब का गंभीर है. इस गजब की गंभीर बात को इम्तियाज साहब ने गंभीरता से कहने की भूल की है. शायद कहानी लिखने के चक्कर में वो इतने मशगूल हो गए कि ये बात भूल ही गए कि इस देश में इंटैलिजेंट टाइप के लोग भी हिंदी फिल्मे देखते हैं.

लेकिन इस फिल्म को देखने के बाद मुझे जे जे का कैरेक्टर और गुलाम अली की एक गज़ल दोनों एक साथ याद आ रहे हैं जिसे मै नीचे लिख रहा हूँ...

यही आगाज था मेरा, यही अंजाम होना था,
मुझे बर्बाद होना था, मुझे नाकाम होना था,
मुझे तक़दीर ने तक़दीर का मारा बना डाला,
चमकते चाँद को टूटा हुआ तारा बना डाला,
मेरी आवारगी ने मुझको आवारा बना डाला.

(मैंने आज ही 'रॉकस्टार' फिल्म देखी है)

बहरहाल, मैंने ये फैसला किया है कि जल्द ही इस फिल्म को दोबारा देखूंगा. लेकिन मै अपने किसी भी जानने वाले को इस फिल्म को न देखने की सलाह दूंगा. क्योंकि इम्तियाज साहब ने फिल्म में गंभीरता कुछ ज्यादा ही उड़ेल दी है.

1 comment:

कौशलेन्द्र said...

भाई मैंने अभी तक आपकी क्लास में एडमिशन नहीं लिया है पर जल्द ही किसी 'अधिकारी' को 'घूस' देकर आपकी क्लास में बैकडोर से इंट्री लेने की तैयारी में हूं तो थोड़ा समय चाहूंगा अपनी राय प्रकट करने के लिए...