Thursday, 10 November 2011

शताब्दी के विशेष दिन पर एक आम आदमी की मरियल कहानी!


बचपन से ही मेरी एक आदत ने मुझे हमेशा ही परेशान किया है हालांकि, इसकी वजह से मेरे घर वाले भी कम परेशान नहीं रहे. लेकिन क्या करें हमारे मनीषियों ने ही तो कहा है कि भाग्य और आदत इंसान का पीछा कभी नहीं छोड़ते. जब मनीषी ही नहीं छुड़ा पाए तो मेरी क्या बिसात. खैर ज्यादा भाषण सुनने के आप आदि हो सकते हैं लेकिन आपको बता दूँ कि भाषणबाजी करने का मुझे बिलकुल भी शौक नहीं है. सो अब बात सीधे मुद्दे की.



मै बचपन से ही उन जगहों पर जाने से कतराता था जहां मेरे (स्कूल ले लेकर यूनिवर्सिटी तक के कोई भी) क्लासमेट जमा होते. या जहां परिवार के सभी हमउम्र जमा होने वाले होते. मै हर बार इन जगहों पर न जाने से बचने का एक ही बहाना बनाता और नतीजे में घर वालों का वही घिसा-पिटा लेक्चर मिलता - 'देखो, घर में मुंह छुपाए बैठा है जैसे किसी कि चोरी की हो, जिंदगी भर ऐसे ही मुंह चोर बने रहना.' हालाँकि कॉलेज या यूनिवर्सिटी में कोई ऐसी उलाहना देने वाला नहीं होता था तो वहां किसी तरह पीछे बैठकर या लोगों से मुह छिपाकर बच जाता था.



जब और बड़ा हुआ तो इसी स्थिति का सामना ऑफिस में भी हुआ. यहाँ भी मै काम करने तो टाइम पर आ जाता लेकिन पार्टीज या मीटिंग में जाने से बचने कि हर कोशिश करता था. लेकिन ऑफिस में आपका ऐसा करना अनुशासनहीनता कि श्रेणी में आता है. सो जाना जरुरी होता है. न जाने क्यों मुझे हमेशा ऐसा लगा कि इन मीटिंग्स या पार्टियों का एकमात्र मकसद चमचों और दलालों को फायदा पहुंचाना और दूसरों (या कहें हम जैसों) को यह एहसास दिलाना होता था कि -'देखो अगर तुम्हे भी जिंदगी में आगे बढ़ना है तो इन चमचों और दलालों से कुछ सीखो, वरना पड़े रहोगे ऐसे ही किसी कोने में, जिंदगी भर'. कई बार तो ऐसा भी हुआ कि पार्टी या मीटिंग के अगले ही दिन आपसे किसी ने पूछ दिया -'यार तुम थे उस मीटिंग में जिसमे सर ने अरविन्द की बड़ी तारीफ़ की थी?'



मीटिंग में बॉस और उनके चमचों ने मुझे अनदेखा किया इस बात का मुझे तनिक भी दुःख न था लेकिन धक्का तब लगा जब ये सवाल उस शख्स ने कर दिया जो मीटिंग में ठीक मेरे बगल में ही बैठा था और जिसे ऑफिस में मेरे सिवा कोई और बगल में बैठने भी नहीं देता.

इस सवाल को सुनने के बाद लगा कि जिसे मै अपना परम साथी और दुःख में सबसे बड़ा राहगीर समझ रहा था दरअसल वो खुद पूरी मीटिंग में इस कोशिश में लगा था कि बॉस या उनका कोई एक चमचा उसकी ओर देख लेता और कह देता कि साहब ये बंदा भी अच्छा काम कर रहा है.



जाहिर है ऐसे में उसे मेरा ध्यान कैसे रहता. इस झटके के बाद मुझे एह्साह हुआ कि दरअसल मेरा यह दोस्त कम से कम व्यावहारिक ज्ञान में मुझसे बीस है. उसे पता है कि अगर वो मेरी ओर देख भी लेता तो उसे क्या फायदा मिलता? न तो मुझमे चापलूसी करने की कला है और न ही मै दबंग का सलमान खान हूं जो बॉस के सामने ही उनके चमचों की पैंट गीली कर दे.



लेकिन इस मामले में बॉस लोग बेहद निरपेक्ष और न्यायी होते हैं. उनके दरबार में सबको समान अवसर होता है चमचागिरी के करतब दिखाने का. अब जो मैदान में खेल न दिखा सके वो भला कैसा खिलाडी? अब चूंकि लाख यतन करने के बाद भी हम जैसे कुछ लोगों का हर टीम में चयन हो ही जाता है सो ऐसे लोगों को खपाने के लिए ही रिजर्व खिलाडी या ट्वेल्थ मैन की व्यवस्था बनाई गई है. जबकि मेरे ऑफिस में ऐसे लोगों के लिए नाईट शिफ्ट है.ऐसा मै नहीं लोग कहते हैं.



बहरहाल, ऑफिस की मारामारी में मै मूल बात से तो भटक ही गया. लम्बे समय तक मै इस बात को नहीं समझ पाया कि आखिर क्यों मेरी दोस्ती (स्कूल से यूनिवर्सिटी तक) उन लोगों से ही रही जिनका एडमिशन कोटे के आधार पर होता था. जबकि मै हमेशा से ही सामान्य कोटे से एडमिशन पाया और अच्छे संस्थाओं में पढ़ा.



अक्सर मै इसी गलतफहमी में रहता था कि मै इनके साथ रहता हूँ क्यूंकि इन्हें मेरी जरुरत है. और एक अच्छा इंसान होने के नाते मेरा यह फर्ज है कि मै इनकी मदद करूँ. लेकिन हमेशा ही मेरे साथ ऐसा हुआ कि मौका मिलते ही वो मुझे छोड़ कर सामान्य कोटे वाले से दोस्ती कर लेते और फिर मुझपर ऐसे हँसते जैसे कि मैंने ही उनका रास्ता बंद कर रखा था. तब मुझे पता चलता कि दरसल इन्हें मेरी नहीं बल्कि मुझे उनकी जरुरत है. और मै ही नहीं चाहता कि इनमे से कोई भी सामन्य वर्ग के लोगों संग मेल-जोल बढाए और मै अकेला पड़ जाऊं.



अब सबसे पहले इस बात की समीक्षा कि मै इन कोटे वालों से ही दोस्ती क्यों करता आया हूँ? असल में भले ही मेरा प्रवेश सामान्य कोटे से होता था लेकिन कागज़ पर कोटे में सामान्य लिखा होने के अलावा मेरे साथ कुछ भी सामान्य नहीं था. गरीबी और अभाव में पला- बढ़ा होने की वजह से वह दरिद्रता मेरे चहरे से लेकर मेरे पहनावे तक से झलकती थी.



गरीबी एक अभिशाप है. इससे बड़ी कोई बीमारी नहीं है ( तभी तो सारी दुनिया इसे ख़त्म करने में लगी हुई है). इस बुराई का असर उस इंसान पर जरुर पड़ता है जो इसके साथ जीता है. सो गरीबी का असर मेरे व्यवहार पर भी उतना ही था जितना मेरे पहनावे और शक्ल पर. सामान्य वर्ग का होते हुए भी मेरा व्यवहार गरीबों जैसा ही था, इसलिए मै सामान्य वर्ग के लोगों के साथ उठने -बैठने से कतराता हूँ. सोचता हूँ कहीं मेरे शक्लो सूरत और व्यवहार की वजह से उनका अपमान न हो जाए. जबकि कोटे वालों के साथ उठने बैठने में कम से कम ये खतरा नहीं रहता.



पार्टियों-समारोहों में इन कोटे वालों की हमेशा ये कोशिश होती है कि काश! अगड़े वर्ग का कोई व्यक्ति हमारा हाथ पकड़ लेता और हमेशा के लिए हमें इस पिछड़ेपन से छुटकारा दिला देता. ऐसे में इन आयोजनों में कोटे वाले भी मेरा साथ नहीं देते थे. बस यहीं पर लोचा हो जाता है. न जाने क्यों इन कोटे वालों ने हमेशा मुझे अपनी ओर आकर्षित किया है लेकिन, इन अगड़ों की दिखावट ने पार्टियों में जाने की मेरी इच्छा को ही मार दिया.



मुझे अकेला देखकर किसी (दिखने वाले) अगड़े ने कभी मेरी ओर हाथ नहीं बढाया शायद इसलिए कि मै आज भी दिखावे और पहनावे से पिछड़ा दीखता हूँ और मेरे व्यवहार में अभी भी अगड़े होने का 'दंभ' नहीं आ सका है.

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