कश्ती को कई बार भँवर में फँसते हुए देखा,
जिंदगी को कई मोड़ पे रुकते हुए देखा,
अब तक के सफ़र में, कई ऐसे भी दौर हैं
जब खुद को सरेआम शर्मिंदा होते हुए देखा,
कभी कपड़ों, कभी सूरत, कभी अपनों से मिली ज़िल्लत
कभी जूते के उखड़े सोल से आॅफिस में हुई ज़लालत,
इन सबके पीछे थी कहीं दौलत की ज़रूरत,
जिसने हर मकाम पे दिलाई हमें ज़िल्लत,
अक्सर अखबारों में यहाँ छपते हैं ये किस्से,
वो टॉप कर गए जो महंगी कोचिंग से थे निकले,
अब क्या करें वो जिनको नहीं रोटी भी मयस्सर,
वो भी बनेंगे सुर्खी जब, फुटपाथ पर चढ़ेगी मोटर
काबिल हैं वो जो खुद को औरों से रक्खें आगे,
वो क्या रहेंगे आगे जिन्हें रोटी की फिक्र है,
रोटी तो भरती पेट है , लाती नहीं रौनक
रौनक तो लाई जाती है चेहरा मसाज से,
भाते नहीं गरीब जिन्हें रेंगते हुए,
देते हैं वो भाषण जिन्हें कुत्तों से प्यार है,
कहते हैं वो खुद को गरीबों का रहगुज़र,
वो जिनको पता भी नहीं, भाजी क्या भाव है।
संजीव श्रीवास्तव
2 comments:
Bilkul sahi baat kaha hai apne kavita ke madhyam se... jinko roti ki kimat nahi pata hai wo bhi khud ko garibo ke subhchintak mante hai
बहुत जबरदस्त रचना..चोट करती है,
Post a Comment