बिना हीटर के सर्दी में, बिना बिजली के गर्मी में,
नहीं सुनता जिसकी यहाँ, बाबू भी दफ्तर में,
यहाँ अक्सर जो मरता है, डाक्टर की गलती से,
गुजर जाती है जिसकी उम्र, कचहरी की तारीखों में,
नहीं सुनता जिसकी यहाँ, बाबू भी दफ्तर में,
यहाँ अक्सर जो मरता है, डाक्टर की गलती से,
गुजर जाती है जिसकी उम्र, कचहरी की तारीखों में,
वो सूखे को भी सहता है, वो बाढ़ में भी बहता है,
वो ट्रैफिक में भी फंसता है, वो गढ्ढे में भी गिरता है,
मगर फिर भी वो अपना वोट, उसी लीडर को देता है,
जो खुद खाता है चारा मगर, बेटे को गद्दी दिलाता है,
फिर क्यूँ चाहेगा कोई, यहाँ पर आम आदमी बनना,
जहाँ बड़ा आसां है, एक कातिल का नेता बन जाना,
जहाँ रक्षक ही करते हैं, सड़क पर सौदा इज्जत का,
फिर क्यूं न मुश्किल हो, यहां किसी आदमी का इंसां बन जाना,
जहाँ होती है मातृ-भाषा की, दिन-रात तौहीनी,
और इज्ज़त मिलती है उन्हें, जो बोलते हैं ‘अंग्रेजी’,
न जाने क्यों नहीं भाती, मुझे बातें इन ‘बड़े लोगों’ की,
मुझे तो मतलब है, बस अपने छोटे से आँगन की,
मुझे तो भाती है, बस उस गाँव की मिट्टी,
जो अपने संग लाती है, खुशबू मेरे बचपन की,
मैं रहना चाहता हूं बीच, उनके ही,
जिन्हें मेरी ज़रूरत है, और मुझे भी कम नहीं उनकी,
मैं खुश-किस्मत था, आ पहुंचा इस शहर तक भी,
पर वो ले नहीं सकते, टिकट एक पैसेंजर ट्रेन का भी,
मैं जाना चाहता हूँ, उनको सिर्फ ये बतलाने,
कि किस्मत अच्छी है उनकी, जो सोते हैं अपने छप्पर में,
यहां गर संग न हों पैसे, तो घुस नहीं सकते बमपुलिस में भी,
वहां पर रूखी-सूखी है, मगर इज्ज़त तो है अपनी,
यहां तो खाली हुआ जहां बटुआ, तो पत्नी भी नहीं अपनी,
यहां मिलता है घर, किराया और एडवांस देने पर,
मगर मिलती नहीं हवा और धूप, पूरा फ्लैट लेकर भी,
वहां लोग रोज मिलते हैं, मोहल्ले और चौपालों में,
यहां मिलना होता है, कभी दिवाली तो कभी होली में,
हैं मुश्किलें वहां पर भी, यहां पर भी,
यहां तो मुश्किल है, जीना भी और रहना भी,
वहां भी रहना मुश्किल है, मगर नहीं है इतना भी,
यहां पर बच्चे भी शरमाते हैं, बाइक से चलने में,
वहां बूढ़े भी शान से, साइकिल पर चलते हैं,
यहां तो बीतती है रात किसी की बार, किसी की डिस्को में,
वहाँ तो रात होते ही बिछ जाती हैं खाटें, आंगन और मुहाने में,
यहां सब सुन्दर है, सब है बड़े सलीके में,
पर न जाने क्यूं, वहां की अल्ल्हड़ता बसी है सीने में,
मैं आता हूं जब भी शहर, गाँव याद आता है,
पर जब जाता हूं गांव, शहर का सब भूल जाता है।
संजीव श्रीवास्तव
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