दिल्ली में आए थे, सुना था नाम बड़ा इसका
देखा तो यहां हर तरफ बिखरी थी गरीबी
दिन भर भटकते हैं जो रोटी की तलाश में
रातों को सोते पाया उन्हें कूड़ेदान में
है रोशनी हर तरफ, रौनक है हर तरफ
मेट्रो में हैं ठुसे और, पड़ोसी से बेखबर
रातों में इंस्टा-एफबी से मिटती है तन्हाई
अपनों से दूर दिल्ली में यूं बितते हैं दिन
मिलता तो इस शहर में सबको रोजगार है
पर, किराएदारी यहां सबसे बड़ा कारोबार है
मिलती है सस्ती रोटी, यहां पानी है महंगा
दलाली यहां का सबसे बड़ा रोजगार है
कमरे की दलाली यहां, गाड़ी की दलाली
कहते हैं जिस्म की दलाली भी यहां जोरदार है।
संजीव श्रीवास्तव
3 comments:
दलाल तो देश को भी चलाने में योगदान दे रहे हैं बन्धु. वर्ड वेरीफिकेशन हटा दें तो अधिक सुविधा होगी.
दलाली ही दलाली..
संजीव-सफेद दाँतों के पीछे टारटर भी जमा होता है- बिल्कुल सही लिखा है आपने,विचार के स्तर पर भी और शब्दों के स्तर पर भी बस ज़रूरत है किसी ठोस हल की...... ।
Post a Comment